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________________ होती है वह शब्दनय है। लिङ्ग व्यभिचार-जैसे 'पुष्य: तारका और नक्षत्रम्।' ये भिन्न-भिन्न लिङ्ग के शब्द है, इनका मिलाकर प्रयोग करना लिङ्ग व्यभिचार है। साधन-व्यभिचार- जैसे, 'सेना पर्वतम धिवसति' सेना पर्वत पर है, यहाँ अधिकरण कारण में सप्तमी विभक्ति होनी चाहिये, पर 'अधिं उपसर्ग पर्वक वस्धातु का प्रयोग होने से द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। संख्या व्यभिचार-जैसे, जल, आपः, वर्षा ऋतुः, आम्राः, वनम्, वारणा: नगरम्' यहाँ एक वचनान्त और बहुवचनान्त शब्दों का विशेषण विशेष रूप से प्रयोग किया गया हैं कालव्यभिचार- जैसे, 'विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' इसका पुत्र विश्वदृश्वा होगा। जिसने विश्व को देख लिया है वह विश्वदृश्वा कहलाता है यहाँ 'विश्वदृश्वा' इस भूतकालिक कर्ता का 'जनिता' इस भविष्यत्-कालिक क्रिया के साथ सम्बन्ध जोडा गया है। जैसे- 'सतिष्ठते, प्रतिष्ठते, विरमति, उपरमति आदि' यहा परस्मैपदी 'स्था धातु का 'सम् और 'प्र' उपसर्ग के कारण आत्मनेषद में प्रयोग हुआ है तथा 'रम' इस आत्मनेपदी धातु का 'वि' और 'उप' उपसर्ग के कारण परस्मैपद में प्रयोग हुआ है। लोक में यद्यपि ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि इस प्रकार के व्यवहार को शब्दनय अनुचित • मानता है। समभिरूढनय का लक्षण ज्ञेयः समभिरूढोऽसौ शब्दो यद्वि षयः सहि। .. . एकस्मिन्नभिरूढोऽर्थे नानार्थान् समतीत्य यः॥(49) जहाँ शब्द नांना अर्थों का अल्लङ्गन कर किसी एक अर्थ में रूढ़ होता है उसे समभिरूढनय जानना चाहिए। जैसे 'गो:' यहाँ 'गो' शब्द, वाणी आदि अर्थों को गौणकर गाय अर्थ में रूढ हो गया है। 107 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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