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________________ संग्रहनय का लक्षण भेदेनैक्यमुपानीय स्वाजातेरविरोधतः। समस्तग्रहणं यस्मात्स नयः संग्रहो मत॥(45) अपनी जाति का विरोध न करते हुए भेद द्वारा एकत्व को प्राप्त कर समस्त पदार्थो का ग्रहण जिससे होता हैं वह संग्रहनय माना गया हैं। जैसे सत्, द्रव्य और घट आदि। अर्थात् सत् के कहने से समस्त संतो का ग्रहण होता है, द्रव्य के कहने से समस्त द्रव्यों का संग्रह होता हैं और घट के कहने से समस्त घटों का बोध होता है। संग्रहनय में अवान्तर विशेषताओं को गौण कर सामान्य को विषय किया जाता हैं। व्यवहारनय का लक्षण संग्रहेण गृहीतानामर्थानां विधिपूर्वकः। व्यवहारो भवेद्यस्माद् व्यवहारनयस्तु सः॥(46) संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करना व्यहारनय है। जैसे सत् के दो भेद हैं- द्रव्य और गुण। द्रव्य के दो भेद हैं - जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य। घटके दो भेद हैं - पार्थिव (मिट्टी का) और अपार्थिव (मिट्टी भिन्न धातुओं से निर्मित) ऋजुसूत्रनय का लक्षण ऋजुसूत्रः स विज्ञेयो येन पर्यायमात्रकम्। वर्तमानैकसमयविषयं परिग्रह्यते॥(47) जिसके द्वारा वर्तमान एक समय की पर्याय ग्रहण की जावे उसे 'ऋजुसूत्रनय' कहते है। शब्दनय का लक्षण लिङ्गसाधनसंख्यानां कालोपग्रहयोस्तथा। व्यभिचारनिवृत्तिः स्याद्यत: शब्दनयो हि सः॥(48) जिससे लिङ्ग, साधन, संख्या, काल और उपग्रह के व्यभिचार की निवृत्ति 106 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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