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wrong knowledge) like a lunatic, knows things according to his own whims.
वास्तविक और अवास्तविक के अन्तर के बिना 'यदृच्छोपलब्धि' (जब जैसा रूप आया उस रूप ग्रहण होने) के कारण उन्मत्त की तरह ज्ञान भी अज्ञान ही है।
ज्ञेय के अनुरूप जो ज्ञान होता है उसे 'सम्यग्ज्ञान' कहते हैं । ज्ञेय के अनुरूप जो ज्ञान नहीं होता उसे 'मिथ्याज्ञान' कहते हैं। जब जीवों का श्रद्धान विपरीत होता है तब ज्ञान भी विपरीत हो जाता है । प्रकृत में 'सत्' का अर्थ विद्यमान और 'असत्' का अर्थ अविद्यमान है। इनकी विशेषता न करके इच्छानुसार . ग्रहण करने से विपर्यय होता है। कदाचित् रूपादिक विद्यमान है तो भी उन्हें अविद्यमान मानता है और कदाचित् अविद्यमान वस्तु को भी विद्यमान कहता है । कदाचित् सत् को सत् और असत् को असत् ही मानता है। यह सब निश्चय मिथ्यादर्शन के उदय से होता है। जैसे पित्त के उदय से आकुलित बुद्धि वाला मनुष्य माता को भार्या और भार्या को माता मानता है। जब अपनी इच्छा की लहर के अनुसार माता को माता और भार्या को भार्या ही मानता है तब भी वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है । इसी प्रकार मत्यादिक का भी रूपादिक में विपर्यय जानना चाहिए । खुलासा इस प्रकार है - इस आत्मा में स्थित कोई मिथ्यादर्शन रूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास को उत्पन्न करता रहता है।
कारण विपर्यास- यथा कोई मानते हैं कि रूपादिक का एक कारण है जो अमूर्त और नित्य है । कोई मानते हैं कि पृथ्वी जाति के परमाणु अलग है और चार गुण वालें हैं। जल जाति के परमाणु अलग है जो तीन गुण वा हैं। अग्नि जाति के परमाणु अलग है जो दो गुण वाले हैं और वायु जाति के परमाणु अलग हैं जो एक गुण वाले हैं। तथा ये परमाणु अपने समान जातीय कार्यही उत्पन्न करते हैं। कोई कहते हैं कि पृथ्वी आदि चार भूत हैं और इन भूतों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये भौतिक धर्म है। इन सबके समुदाय को एक रूप परमाणु या अष्टक कहते हैं। कोई कहते है कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रम से कठिन्यादि, द्रवत्वादि, उष्णत्वादि और ईरणवादि
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