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________________ गुण वाले अलग-अलग जाति के परमाणु होकर कार्य को उत्पन्न करते हैं। भेदाभेदविपर्यास- यथा कारण से कार्य को सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानना। स्वरूपविपर्यास- यथा-रूपादिक निर्विकल्प है, या रूपादिक है ही नहीं, या रूपादिक के आकाररूप से परिणत हुआ विज्ञान ही है उसका आलम्बनभूत और कोई बाह्य पदार्थ नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यादर्शन के उदय से जीव प्रत्यक्ष और अनुमान के विरूद्ध नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं और उनमें श्रद्धान उत्पन्न करते हैं। इसलिए इनका यह ज्ञान मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान या विभंग ज्ञान होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञान में श्रद्धान उत्पन्न करता है अत: इस प्रकार का ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है। नयों के भेद नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवंभूतानयाः। (33) The points of view (are): figurative, general, distributive, actual descriptive, specific, active. . नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समम्भिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय है। प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुण पर्यायात्मक है। अतएव उसके जानने के उपाय भी अनेक हैं। केवली भगवान का ज्ञान अनन्त होने के कारण केवली भगवान अनन्त केवलज्ञान के माध्यम से द्रव्य के अनन्त गुण-पर्याय को जान लेते हैं। तथापि केवली भगवान द्रव्य के अनन्त गुण पर्याय को एक साथ बता नहीं सकते हैं। इसलिए भगवान भी सप्तभंगी रूप से द्रव्य का प्रतिपादन करते हैं। छद्मस्थ जीव तो द्रव्य के अनन्त गुण पर्याय को न तो एक साथ जान सकते हैं और न ही प्रतिपादित कर सकते हैं। इसलिए छद्मस्थ जीव विशेषकर नय का आवलम्बन करके वस्तु के स्वरूप का परिसान करते हैं। इसके विशेष परिज्ञान के लिए मेरे द्वारा (कनक नदी) रचित अनेकान्त दर्शन का अवलोकन करें। यहां पर तत्वार्थ सार के अनुसार नयों का वर्णन कर रहे हैं। 104 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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