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________________ आभीयमासुरक्खं, 1 तुच्छा असाहणीया, सुय अण्णाणेति णं बेंति । (304) आभीतमासुरक्षं तुच्छा असाधनीया श्रुतज्ञानमिति इदं ब्रुवन्दि । (304) अर्थ- चौरशास्त्र, तथा हिंसाशास्त्र,... परमार्थशून्य अतएव अनादरणीय उपदेशों को मिथ्याश्रुतज्ञान कहते हैं। 'आदि' शब्द से सभी हिंसादि पाप कर्मों के विधायक तप असमीचीन तत्त्व के प्रतिपादक ग्रन्थों को कुश्रुत और उनके ज्ञान को श्रुतज्ञान समझना चाहिये । विवरीयमोहिणाणं, खओवसमियं च कम्मबीजं च । विभंगो त्ति पउच्चडू, समत्तणाणीण समयम्हि । (305) विपरितमवचिज्ञानं क्षायोपश्मिकं च कर्म्मबीजं च । विभंग इति प्रोच्यते समाप्तज्ञानिनां समये । (305) सर्वज्ञों के उपदिष्ट आगम में विपरित अवधिज्ञान को 'विभंग' कहते हैं। इसके दो भेद हैं- एक क्षायोपशमिक, दूसरा भवप्रत्यय । देव नारकियों के विपरीत अवधिज्ञान को भवप्रत्यय विभंग कहते हैं और मनुष्य तथा तिर्यंचों के विपरीत अवधिज्ञान को क्षायोपशिम विभंग कहते हैं । इस विभंग का अतरंग करण मिथ्यात्व आदिकं कर्म है। 'विभंग' शब्द का निरूक्तिसिद्ध अर्थ यह है कि मिथ्यात्व या अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से अवधिज्ञान की विशिष्टता समीचीनता का भंग होकर उसमें अयथार्थता आ जाती है, इसलिए उसको 'विभंग' कहते है इसको कर्म बीज इसलिए कहा है कि मिथ्यात्वादि कर्मों के बन्ध का वह कारण है । परन्तु साथ ही 'च' शब्द का उच्चारण करके यह भी सूचित कर दिया गया है कि कदाचित् नरकादि गतियों में पूर्वभव का ज्ञान कराकर वह सम्यकत्व उत्पत्ति में भी निमित्त हो जाता है। सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरून्मत्तवत् (32) From tack of discrimination of the real, and the unreal (the soul with 102 Jain Education International For Personal & Private Use Only · www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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