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________________ अण्णाणतियं होदि हु, सण्णाणतियं खु मिच्छाअणउदये। णवरि विभंग णाणं पंचिदियसण्णिपुण्णेव॥ (301) अज्ञानत्रिकं भवति खलु सदज्ञानत्रिकं खलु मिथ्यात्वनोदये। नवति विभगं ज्ञानं पंचेन्द्रियसंज्ञिपूर्ण एव॥ (301) आदि के तीन (मति, श्रुत, अवधि) ज्ञान समीचीन भी होते हैं और मिथ्या भी होते हैं। ज्ञान के मिथ्या होने का अन्तरंग कारण मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धीकषाय का उदय है। मिथ्या अवधि को विभंग भी कहते हैं। इसमें यह विशेषता है कि यह विभंगज्ञान संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय के ही होता विसंजतकूडपंजरबंधादिसु णिणुवएसकरणेण। जा खलु पट्टइ मई, मइअण्णाणेति णं बेंति।(303) विषयन्त्रकूटपंजरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन। या खलु. प्रवर्तते मति: मत्यज्ञानमिति इदं ब्रुवन्ति।(303) दूसरे के उपदेश के बिना ही विष यंत्र कूट पंजर तथा बंध आदि के विषय में जो बुद्धि प्रवृत होती है उसको मत्यज्ञान कहते हैं। जिसके खाने से जीव मर सके उस द्रव्य को विष कहते हैं। भीतर पैर रखते ही जिसके किवाड़ बन्द हो जायें और जिसके भीतर बकरी आदि को बाँधकर सिंह आदि को पकड़ा जाता है उसको यंत्र कहते हैं। जिससे चूहे वगैरह पकड़े जाते हैं, उसको कूट कहते हैं। रस्सी में गाँठ लगाकर जो जाल बनाया जाता है उसको पंजर कहते हैं। हाथी आदि को पकड़ने के लिए जो गड्ढ़े आदिक बनाये जाते हैं उनको बन्ध कहते हैं। इत्यादि पदार्थों में दूसरे के उपदेश के बिना जो बुद्धि प्रवृत होती है उसको मत्यज्ञान कहते हैं, क्योंकि उपदेश पूर्वक होने से वह ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जायेगा। . .101 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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