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श्रुतज्ञान और मन: पर्यय ज्ञान होते हैं। तथा चार होते हैं। तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान होते हैं। एक साथ पाँच ज्ञान नहीं होते, क्योंकि केवलज्ञान असहाय है। तथा सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्म के क्षय से प्रगट होता है। इसलिये क्षायिक ज्ञान कहा जाता है। क्षायिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञान एक साथ नहीं रहता हैं। __ मति श्रुत और अवधिज्ञान में मिथ्यापन
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। (31) And sensitive scriptural visual (knowledge are also) wrong (knowledge). - मति, श्रुत और अवधि ये तीनों विपर्यय भी है। ज्ञान का कार्य जानना है। परन्तु जब ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होता है तब ज्ञान की शक्ति कुंठित हो जाती है, परन्तु विपरीत नहीं होती है। किन्तु मोहनीय कर्म के उदय से ज्ञान विपरीत रूप में परिणमन कर लेता है। अमृतचन्द्र सूरि ने कहा भी है
मतिः श्रुतावधी चैव मिथ्यात्वसमवायिनः।
मिथ्याज्ञानानि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता ॥(35)
मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान यदि मिथ्यात्व के साथ सम्बन्ध रखने वाले हैं तो मिथ्याज्ञान कहे जाते हैं और उस दशा में उनमें प्रमाणता नहीं मानी जाती।
(तत्त्वार्थसार, पृ. 16) मिच्छत्ता अण्णाणं अविरदिभावो य भावआवरणा। णेयं पडुच्च काले तह दुण्णय दुप्पमाणं च॥(6)
(पंचास्तिकाग प्राभृत) पृ. 147 द्रव्य मिथ्यात्व के उदय से ज्ञान, अज्ञान रूप अर्थात् कुमति, कुश्रुत व विभंगज्ञान रूपी होता है तथा व्रत रहित भाव भी होता है। इस तरह तत्त्वार्थ श्रद्धानुरूप भाव सम्यग्दर्शन व भाव संयम का आवरण रूप भाव होता है तैसे ही मिथ्यात्व के उदय से ज्ञेयरूप जीवादि पदार्थों को आश्रय करके तत्त्व विचार के समय में सुनय दुर्नय हो जाता है व प्रमाण दुःप्रमाण हो जाता है।
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