________________
लोकालोक में अन्धकार रहित होता है।
यह ज्ञान समस्त पदार्थों को जिए: करने वाला है और लोकालोक के विषय में आवरण रहित है। तथा जीव द्रव्य के जितने अंश है वे यहां पर सम्पूर्ण व्यक्त हो गए हैं, इसलिए उसको (केवलज्ञान को) सम्पूर्ण कहते हैं। मोहनीय और वीर्यान्तराय का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण वह अप्रतिहत शक्ति युक्त है, और निश्चल है अतएव उसको समग्र कहते हैं। इन्द्रियों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता इसलिए केवल कहते हैं। चारों घातिकर्मों के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होने के कारण वह क्रमकरण और व्यवधान से रहित है, फलत: युगपत् और समस्त पदार्थों के ग्रहण करने में उसका कोई बाधक नहीं है, इसलिए उसको असपत्न (प्रतिपक्षरहित) कहते हैं।
असहायं स्वरूपोत्थं निरावरणमक्रमम्। घातिकर्मक्षयोत्पन्नं केवलं सर्वभावगम्॥(30)
(त.सा.पृ.15) जो किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से रहित हो, आत्म-स्वरूप से उत्पन्न हो, आवरण से रहित हो, क्रमरहित हो, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुआ हो तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं। .एक जीव के एक साथ कितने ज्ञान हो सकते है ?
एकदीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः। (30) Beginning form the first onwards in one (should) (at) a time as to their distribution (there can be found) upto four (kinds of knowledge.)
- एक जीव में एक साथ एक को आदि लेकर चार ज्ञान तक विभक्त करने के योग्य है अर्थात् हो सकते हैं।
एक साथ एक आत्मा में एक से लगाकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। यथा-यदि एक ज्ञान होता है तो केवलज्ञान होता है। उसके साथ दूसरे क्षयोपशमिक ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते। दो होते हैं तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं। तीन होते है तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मतिज्ञान,
99
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org