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________________ अवधिज्ञान की प्रवृत्ति रूपी पदार्थों में होती है। ___ अवधिज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान होते हुए भी देशप्रत्यक्ष है क्योंकि अवधिज्ञान, अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण इसकी शक्ति सीमित है इसलिए सीमा सहित होने के कारण अवधि कहते हैं। वह अवधिज्ञान रूपी द्रव्य अर्थात् पुद्गल द्रव्य को ही जानता है। जहाँ रूप होगा वहाँ स्पर्श, रस, गंध भी होगा और जो स्पर्श रस गंध वाला है वहां पुद्गल है। अवधिज्ञान पुद्गल की अनन्त पर्यायों को नहीं जानता परन्तु कुछ पर्यायों को जानता है। वह अवधिज्ञान जीव के औदयिक, औपशमिक और क्षयोपशामिक भावों को विषय करता है। क्योंकि इनमें रूपी कर्म का सम्बन्ध है तथा रूपी कर्म के सम्बन्ध का अभाव होने से क्षायिक भाव, पारिणामिक भाव तथा धर्मादि द्रव्यों को अवधिज्ञान विषय नहीं करता। अवधिज्ञान इनको नहीं जानता। मनःपर्ययज्ञान का विषय तदनन्तभागे मनः पर्ययस्य। (28) The infinitesimal part or the subtlest from of that (which can be known by the highest visual knowledge is the subject matter) of mental knowledge. मनःपर्ययज्ञान की प्रवृत्ति अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग में होती है। - जो रूपी द्रव्य सर्वावधिज्ञान का विषय है उसके भाग करने पर उसके एक भाग में मन:पर्ययज्ञान प्रवृत्त होता है। सूक्ष्मता की उपेक्षा अवधिज्ञान का सर्वोत्कृष्ट भेद सर्वावाधिज्ञान परमाणु तक को जानता है। मन:पर्ययज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय से अनन्तवें भाग है अर्थात् अवधिज्ञान परमाणु को जानता है तो मन: पर्ययज्ञान परमाणु के भी अनन्तवें भाग को जानता है। यद्यपि परमाणु स्वयं अविभागी एक प्रदेशी द्रव्य है तथापि सूक्ष्मता को बतलाने के लिए उसमें अनन्त भागों की कल्पना की गई है। यदि परमाणु के अनन्त भाग किये जावें तो उनमें से एक भाग को मन: पर्ययज्ञान जान सकता है। (शक्ति के अंश) 97 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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