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________________ * ९२ * कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * मोक्ष से जोड़ने वाले पंचविध योग . भारतीय धर्मों की सभी धाराओं में योग को मोक्षप्रापक और भवरोगनाशक माना गया है। आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता, आत्म-स्वरूप में अवस्थिति, आत्मा के साथ लगे हुए कर्मबन्धनों से मुक्ति एवं अव्याबाध-सुख की प्राप्ति के जितने भी उपाय विविध धर्मों और दर्शनों ने बताये हैं, उनमें अन्यतम विशिष्ट उपाय 'योग' है। जैन-मनीषियों ने योग का अर्थ किया है-मोक्ष के साथ संयोजन कराने वाला, अथवा जिससे आत्मा केवलज्ञान आदि से या मोक्ष से जोड़ा जाता है। इसीलिए इसे कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरल से उपमा देकर आत्मा का परम धर्म तथा मोक्ष का सुदृढ़ सोपान बताया गया है। ‘योगबिन्दु' ग्रन्थ में इसके पाँच प्रकार बताये गये हैं - ( १ ) अध्यात्मयोग, (२) भावनायोग, (३) ध्यानयोग, (४) समतायोग, तथा (५) वृत्तिसंक्षययोग । आत्मा को लक्ष्य में रखकर प्रत्येक प्रवृत्ति प्रा. क्रिया की जाए, वहाँ अध्यात्मयोग है । अध्यात्मयोग का अधिकारी चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान का स्वामी है। जिसकी मिथ्यात्व की शक्ति नष्ट हो चुकी है, जो सम्यग्दृष्टि है, जिसकी भोगाकांक्षा, कषाय-नोकषाय, आसक्ति, स्पृहा आदि मोहजनित निरंकुश प्रवृत्ति उत्तरोत्तर शान्त, मन्द या क्षीण होती जा रही हो। आत्म-शुद्धि के लक्ष्यपूर्वक जो संवर - निर्जराधर्म के अनुसार मैत्री आदि भावनापूर्वक व्रत, नियम, तप, त्याग, प्रत्याख्यान, सामायिक, दान, शील, जप आदि क्रिया करता हो। जिसके सत्क्रियारूप सम्यग्ज्ञानपूर्वक शुद्ध परिणाम हों; वह अध्यात्मयोग-साधक है। अध्यात्मयोग को क्रियान्वित करने के लिए नौ तत्त्वों, अनुभवात्मक ज्ञान, सम्यक् बोधि दृढ़ आत्म-प्रतीति, आत्मा में ही प्रीति, उसी में तृप्ति, संतुष्टि होना आवश्यक है। साथ ही निर्मलज्ञान के प्रकाश में ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहना भी अध्यात्मयोग के लिए आवश्यक है। प्रारम्भिक भूमिका में अध्यात्मयोग अभ्यास सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप के आचरण से करना चाहिए । तथैव आत्मा है, आत्मा सुख-दुःख (कर्मों) का कर्त्ता है, सुखद-दुःखद कर्मों का भोक्ता है, आत्मा परिणामी नित्य होने से नित्य भी है, अनित्य भी । जड़कर्मों के बन्धनों से मुक्त होने के उपाय भी हैं और कर्मबन्धों से वह सर्वथा मुक्त हो सकता है, मोक्ष भी प्राप्त करता है, इन छह तथ्यों का सम्यग्ज्ञान होना भी इस योग में अनिवार्य है। अध्यात्मयोग की फलश्रुति है-मोह से मोक्ष की ओर गति प्रगति । दूसरा है - भावनायोग । अध्यात्मतत्त्व को चित्त में स्थिर करने के लिए पहले बताई हुई बारह अनुप्रेक्षाओं तथा मैत्री आदि चार भावनाओं का बार-बार चिन्तन करना, अभ्यास करना, उसके दृढ़ संस्कार चित्त में जमाना आवश्यक है। यही भावनायोग का स्वरूप है। भावनायोग भवनाशी और संसार - समुद्र का अन्त कराने वाला है। प्रत्येक श्रमण के दीक्षा लेते ही संयम और तप की भावना से अहर्निश आत्मा को भावित रखना होता है । पाँच महाव्रतों की २५ भावनाएँ भी भावनायोग में सहायक हैं। भावना, अनुप्रेक्षा या चिन्ता (चिन्तन) ध्यानावस्था की प्राप्ति में सहायिका हैं। तीन विशिष्ट भावनाएँ भी भावनायोग की सिद्धि के लिए आवश्यक हैं - ( १ ) समभावना, (२) संवेगभावना, और (३) निर्वेदभावना । तीसरा हैं-ध्यानयोग । चित्तनिरोध द्वारा मन, वचन और काया का निरीक्षण और स्थिरीकरण का नाम ध्यान है। ध्यानयोग से वस्तुतः आत्म-निरीक्षण या आत्म-साक्षात्कार करने से, आत्म-भक्ति में प्रवृत्ति करने से, धर्मध्यान आदि में मन-वचन काया को प्रवृत्त करना ध्यानयोग है। ध्यानयोग के द्वारा ध्यानाग्नि प्रज्वलित हो जाने से पूर्वकृत कर्ममल नष्ट हो जाते हैं। आत्म-स्वातंत्र्य, परिणामों की निश्चलता, जन्मान्तर के कर्मों का विच्छेद, ये ध्यानयोग के मुख्य सुफल हैं। ध्यानयोगी को लब्धियों और सिद्धियों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। उसका पुरुषार्थ सर्वकर्ममुक्ति की दिशा में होना चाहिए। आगे धर्मध्यान और शुक्लध्यान का स्वरूप, अधिकारी और ध्याता के प्रकारों का वर्णन किया गया है। चौथा है-समतायोग। जिसके विषय में पूर्वपृष्ठों में काफी प्रकाश डाला जा चुका है। समतायोग से आत्मा में परमात्म-स्वरूप प्रकट होता है । समतायोग की साधना से पूर्व उसका सम्यग्ज्ञान एवं उसके प्रति श्रद्धा होनी आवश्यक है। समतायोग का दृढ़तापूर्वक अवलम्वन लेकर त्रिगुप्तियुक्त ज्ञानी अर्द्ध-क्षण में पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट कर डालते हैं। जिन्हें तीव्र तप से भी नष्ट नहीं किया जा सकता है। समता ही मुक्ति का एकमात्र उपाय है, इसके बिना सब क्रियाएँ निरर्थक हैं। समतायोग की तीन महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं - ( १ ) लब्धियों में अप्रवृत्ति, (२) ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रतिबन्धक तीन घातिकर्मों का क्षय, तथा (३) अपेक्षातन्तु का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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