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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ९१ *
समाधि, सुगति या मुक्ति का आनन्द अनायास ही प्राप्त होता है। इसीलिए विभिन्न अनुभवी मनीषियों का कथन है-जो भी साधक अतीत में मोक्ष गए हैं, वर्तमान में जा रहे हैं, भविष्य में जायेंगे, वे सब समतायोग (सामायिक) के प्रभाव से ही गए हैं, जाते हैं, जायेंगे। इहलौकिक और पारलौकिक जीवन में भी समतायोग के बिना कोई भी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं होता। समता के बिना जप, तप, क्रियाकाण्ड या व्यावहारिक चारित्र का पालन भी अकिंचित्कर है, मोक्ष में विघ्नकारक है। श्रमण संस्कृति सभी प्रकार के साधकों के लिए समता की प्रेरणा देती है। वस्तुतः आत्मा का मोह और क्षोभ से रहित विशुद्ध परिणाम ही समता है। आत्मा में ऐसी स्थिरता तभी आती है, जब जीवन का प्रत्येक क्षेत्र समतायोग से ओतप्रोत हो। समतायोग का उद्देश्य ही है-साधक को समभावों से ओतप्रोत कर देना. उसके जीवन में बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार की समता को लाना। समतायोगी समभाव से भावित रहता है। उसके क्रोधादि कपाय-नोकषाय शान्त या मन्द हो जाते हैं। वह प्रत्येक जीव के प्रति आत्मौपम्यभाव रखता है। चित्त या बुद्धि की स्थिति समतामय होने पर ही विषमता मिट सकती है। फिर वह लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, प्रियता-अप्रियता आदि द्वन्द्वों में समभाव में स्थित रहता है, क्योंकि वह जानता है कि द्वन्द्वयुक्त जीवन संसार-जीवन है, और द्वन्द्वमुक्त-समतायुक्त जीवन अध्यात्म-जीवन है। अतः मनीपी परुषों ने समतायोग के मार्ग से मोक्ष की मंजिल पाने के निम्नोक्त पाँच उपाय बताये हैं(१) प्रतिक्रिया-विरति, (२) सर्वभूतमैत्री, (३) समस्त क्रियाएँ उपयोगयुक्त हों, (४) धर्म-शुक्लध्यान में स्थिरता का अभ्यास, और (५) ज्ञाता-द्रष्टाभाव। कर्मविज्ञान ने इन पाँचों पर सम्यक्प्रकाश डाला है। समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल
समतायोग के पौधे को अगर आत्म-भूमि में ठीक तरह बोया और सींचा जाए, उसकी पद-पद पर सुरक्षा की जाए, उसे काम-क्रोधादि विकारों से बचाया जाए, अपनी दृष्टि, बुद्धि, प्रज्ञा और अन्तःकरण को विधेयात्मक भावपूर्वक समभाव में स्थिर रखा जाय तो शीघ्र ही वह साधक मोक्षरूपी फल प्राप्त कर सकता है। समतायोगरूपी वृक्ष की चार रूपों में सतत आराधना-साधना श्रद्धा-भक्तिपूर्वक की जाये तो सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष फल को वह साधक अवश्य ही प्राप्त कर सकता है। वे चार रूप इस प्रकार हैं(१) भावनात्मक, (२) दृष्टिपरक, (३) साधनात्मक, और (४) व्यावहारिक जीवन में क्रियात्मक। इन सब में भावनात्मक समभाव मुख्य है। विषमता की परिस्थिति, घटना, प्रतिकूल व्यक्ति या वस्तु का संयोग उपस्थित होने पर भी समभाव से विचलित न होना इसका स्वरूप है। भावनात्मक समभाव में सर्वप्राणियों के
प्रति समभाव, मैत्री आदि भावनामूलक समभाव, पारिस्थितिक समभाव, भेदविज्ञानरूप समभाव और : आत्म-भावरमणरूप समभाव का समावेश हो जाता है। इन सब पहलुओं पर यहाँ प्रकाश डाला गया है।
समतायोग के द्वितीय रूप दृष्टिपरक समभाव का अर्थ है-समतायोग के प्रति श्रद्धा, निष्ठा, रुचि, भक्ति और तत्त्वज्ञान-प्रतीति तथा समता-प्राप्ति के प्रति निःशंकता, निष्कांक्षता, निर्विचिकित्सा एवं अमूढदृष्टि को जानना, मानना और विश्वास करना। एकांगी व एकान्त, हठाग्रहयुक्त दृष्टिकोण समतामय नहीं होता। समतायोग का तृतीय रूप हैं-साधनात्मक समभाव, जिसे साधुवर्ग यावज्जीवन के लिए गृहस्थवर्ग अमुककाल के लिए अंगीकार करता है। दोनों वर्गों की द्रव्यसामायिक साधना भले ही कालसापेक्ष हो, किन्तु भावसामायिक साधना कालनिरपेक्ष है। उसका प्रभाव जीवन के प्रत्येक कार्यकलाप पर पड़ना चाहिए, साथ ही परिवार, सम्प्रदाय, प्रान्त, राष्ट्र, जाति, कौम आदि घटकों में भी समभाव का प्रयोग होना चाहिए। वस्तुतः साधनात्मक समभाव आत्म-साधनापरक है। उक्त समतायोग का प्रयोजन है-आत्मा में निहित कषायों, नोकषायों. काम, मोह, कामनाओं, वासनाओं पर विवेकपूर्वक विजय प्राप्त करके आत्मा को संवर
और निर्जरा से परिष्कत, शद्ध एवं निर्मल करना। व्यावहारिकदष्टि से सावधयोग का परिहार करके निग्वद्ययोगरूप जीव का परिणाम साधनात्मक सामायिक का फलितार्थ है। आत्मा को समता और वीतरागता प्राप्त करने के लिए सक्षम बनाना ही समतायोग के इस रूप का उद्देश्य है। तभी प्रज्ञा का जागरण और समत्वयोग के पूर्ण आदर्श की प्राप्ति होगी। समतायोग का चतुर्थ रूप है-क्रियात्मक व्यावहारिक समभाव। परिवार से लेकर राष्ट्र और विश्व तक समाज और समष्टि के प्रत्येक घटक के साथ भेदभावरहित, निष्पक्ष और उदार व्यवहार करना, जिसकी पृष्ठभूमि में आत्मौपम्यभाव, मैत्री आदि के रूप में आध्यात्मिक होनी चाहिए।
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