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________________ कमविज्ञान : भाग ८ का सारांश मोक्षतत्त्व का स्वरूप-विवेचन मोक्ष का अन्यतम कारण : सुख-दुःख में समभाव जीवन में न तो कभी एकान्त सुख ही आता है और न ही एकान्त दुःख। ये दोनों ही जीव के पूर्वकृत सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म के फल हैं। अतः सुख का फल भोगते समय सुखोन्मत्त न होना और दुःखफल भोगते समय दुःखमग्न दीन न होना, दोनों अवस्थाओं में समभाव रखना ही कर्म के युक्त होने का सर्वोत्तम उपाय है। अर्थात् सुख और दुःख का वेदन न करे. इन्हें विषमतापूर्वक भोगे नहीं, तभी आंशिक मुक्ति पा सकता है। समताधर्म की कला सीख ले तो मनुष्य इस जीवन में ही अव्यावाध सुख का अनुभव कर सकता है। भारत चक्रवर्ती भौतिक सुखों के सभी साधन होते हुए भी निर्लिप्त, अनासक्त और समतामग्न रहे। अतः सखरूप फल भोगते समय सखासक्त होना दःख के बीज बोना है. द:ख को आमंत्रित करना है। जैसे-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सखरुप फल पाकर सख में गाढ आसक्त हो गया. फलतः शद्ध धर्म मे.वाधिलाभ में भ्रष्ट होकर नरकति का मेहमान बना। वर्तमान युग के सुख-सुविधावादी लोगों का कुतर्क उन्हें पर-पदार्थों के गुलाम. असातावेदनीय कर्मबन्धकर्ता तथा दुःख के गर्त में पतित बनाता है। सनत्कुमार चक्रवर्तीरूप सुखमग्नता दुःसाध्य रोगों को कारण बनी। किन्तु जब उन्होंने गेगमय दुःख को समभाव से सहने का दृढ़ निश्चय कर लिया, तब कर्मनिर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी बढ़ती गई। मन के अनुकूल-प्रतिकूलों में सुख-दुःख की कल्पना करना या किसी दूसरे व्यक्ति. वस्तु या शक्ति को सुख-दुःखदाता मानना महाभ्रान्ति है। दुःख के वातावरण में भी समभाव रखे तो व्यक्ति संवर-निर्जरा कर सकता है। और यह भी सत्य है कि गजसुकुमाल जैसे समतायोगी महामुनि को दुःख के इतने साधन सोमिल ब्राह्मण द्वारा जुटाये जाने पर भी दुःखित नहीं कर सका, न ही कर सकता है। और सुख के साधन जुटाये जाने पर भी पर-पदार्थ या व्यक्ति किसी को सुखी नहीं बना सकता, यदि उसका उपादान शुद्ध न होता। सुख-दुःख में समभावी साधक ही कर्ममुक्ति का अलभ्य लाभ प्राप्त कर सकता है। ऐसा साधक दुःखकर प्रसंग को विधायक चिन्तन के बल पर सुखरूप बना सकता, यह कतिपय उदाहरणों द्वारा सिद्ध किया गया है। अतः समभावी का लक्षण हैदुःख में दीनता न हो, सुख में गर्व न हो। दुःखद कर्मफल को स्वेच्छा से या अनिच्छा से भोगना तो पड़ता है, फिर क्यों न सम्यग्दृष्टिपूर्वक स्वेच्छा से समभाव रखकर उसे भोग ले, ताकि सकामनिर्जरा हो, उक्त कर्म से मुक्ति मिल जाए, नया कर्मबन्ध न हो। समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल __ सच्चे यात्री की तरह अध्यात्म-यात्री भी सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि द्वन्द्वों में नहीं उलझता। वह काम, क्रोध आदि लुटेरों या टगों से सावधान रहता है। संयोग या परिस्थितियाँ भयानक या प्रलोभक हों तो भी वह हर्प-शोक में ग्रस्त होकर अपनी अध्यात्म-यात्रा को टप्प नहीं करता। उसके शरीर, इन्द्रियाँ, बुद्धि. धनादि भौतिक उपकरण भी कपायों या गग-द्वेपादि विकारों से वह दूर रहता है। वह आत्मवल. प्राणवल. मनोवल, साहस और पूरे आत्म-विश्वास के साथ समभावपूर्वक उनका सामना करता हुआ समतायोग के सहारे से एक दिन मोक्ष की मंजिल तक पहुँच जाता है. क्योंकि समतायांग में विनाशी के साथ नहीं. अविनाशी के साथ योग है. यानी वह आत्मा को परमात्मा (शद्ध आत्मा) के साथ जोडसा है। समतायोग से जीवन के सभी क्षेत्रों में शान्ति, विरक्ति, धृति, सहिष्णुता और अन्त में सर्वकर्ममुक्ति प्राप्त हो जाती है। उसके अभाव में दुःख, पीड़ा, अशान्ति और असन्तोष को पल्ले पड़ता है। समतायोग को जीवन में अपनाने पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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