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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ८९ *
या आत्मा के लिए अहितकारी या अनिष्टकारिणो? भेदविज्ञान का साधक शरीर की आहार-पानी आदि से सुरक्षा करते हुए भी आत्म-देवता की उपेक्षा नहीं करेगा। वह विनश्वर शरीरादि की सार-सँभाल में ही अहर्निश जुटा रहकर अविनाशी आत्मा की उपेक्षा नहीं करेगा। भेदविज्ञान के अभाव में आत्मा की कितनी
और किस-किस प्रकार से अधोगति होती है, उसे कर्मबन्धक विकार कैसे-कैसे घेर लेते हैं ? इसका स्पष्ट चित्रण कर्मविज्ञान ने किया है। भेदविज्ञान का फलितार्थ है-शरीर को 'मैं' और शरीर-सम्बद्ध सजीव-निर्जीव वस्तुओं को 'मेरी' न समझकर इनसे अलिप्त, निःसंग रहना, इनकी भिन्नता का अभ्यास करके सुसंस्कारों में दृढ़ करना कि न मैं शरीर हूँ, न मन हूँ, न वाणी हूँ, न ही इनका कारण हूँ। मैं इनका कर्ता नहीं, कराने वाला नहीं, और न ही कर्ता का अनुमोदक हूँ। भेदविज्ञान से रहित जीव शरीरलक्षी, बहिरात्मा, कर्मलिप्त, मिथ्यादृष्टि एवं परम्परा से दुर्लभबोधि बन जाते हैं। भेदविज्ञान से रहित और युक्त के आचरण में कितना अन्तर होता है ? इसे पौराणिक उदाहरण द्वारा स्पष्ट समझाया गया है। ऐसे शरीरासक्त मानव का सारा जीवन प्रायः शरीर-चिन्तन में, उसकी मनोवृत्ति भौतिकता के चिन्तन में और तदनुरूप कर्तृत्व में लगा रहता है। जबकि भेदविज्ञानी साधक मन से भी परभावों से आत्म-द्रव्य का सम्बन्ध तोड़ता रहता है, फलतः वह परभावों से या परभावों के प्रति राग-द्वेषादि से बचकर अयोगसंवर का या कदाचित् शुभ योगसंवर का तथा कपायमन्दता का लाभ उठा लेता है। वह बड़े से बड़े संकट में समभाव रखकर निर्जरा भी कर सकता है। जब भी देहभाव आने लगे तब वह तुरंत सावधान होकर देहादि से भिन्नता का चिन्तन करता है। आत्म-भावों में निमग्न हो जाने से व्यक्ति देहभाव से ऊपर उठ सकता है, शरीर की आवश्यकताओं से भी मन को हटा सकता है। रोग, आतंक या पीड़ा की स्थिति में वह इनसे न घबराकर या निमित्तों पर दोपारोपण न करके अपने उपादान को सँभालता है. आत्म-भावों या आत्म-गणों का चिन्तन करता है। जिन-जिन महान् आत्माओं ने सर्वकर्ममुक्ति या सिद्धि प्राप्त की है, उन्होंने भेदविज्ञान के बल पर ही की है। समाधिमरण भी भेदविज्ञान करने पर यथार्थ रूप में हो सकता है। अतः भेदविज्ञान के अभ्यास से संवर-निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति होने में कोई संदेह नहीं हैं।
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