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________________ *.८८ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * करना, इनकी साधना के लिए विविध त्याग, नियम, व्रत-प्रत्याख्यान करना। स्पष्ट है-व्युत्पर्ग तप वाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप का संगम है। भय, प्रलोभन, दबाव या किसी इहलौकिक-पारलौकिक कामना-वासना, स्वार्थलिप्सा, प्रतिष्ठा, प्रशंसा आदि के वश त्याग करना व्युत्सर्ग तप की कोटि में नहीं आता; क्योंकि ऐसे त्याग से शरीर और सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति आसक्ति, लालसा, वासना, मूर्छा, कामना या उत्सुकता नहीं मिटती। व्युत्सर्ग आभ्यन्तर तप तभी कहलाता है, जब आत्म-शुद्धि, आत्म-समर्पण और स्वेच्छा से, बिना किसी स्वार्थ के बलिदान (उत्सर्ग) की दृष्टि से संसार के सभी सजीव और निर्जीव पर-पदार्थों के तथा प्राणों के प्रति भी आसक्ति, ममता, मूर्छा, अहंता, वासना, लालसा, गृद्धि, उत्सुकता और आशा का, यहाँ तक कि कषायों, कर्मों (शुभाशुभ कर्मों) तथा संसार आदि के प्रति भी केवल कर्ममुक्ति का लक्ष्य रखकर त्याग किया जाता हैं। व्युसर्ग तप का उद्देश्य ही है-निःसंगता, निर्भयता तथा जीवन की आशा-तृष्णा आदि का त्याग। यही व्युत्सर्ग का विशद स्वरूप है। कायोत्सर्ग का इसी में अन्तर्भाव हो जाता है। व्युत्सर्ग तप सिद्ध हो जाने पर व्यक्ति में प्रज्ञा जाग्रत हो जाती है, आत्मा में समता और सहज श्रद्धा परिनिष्ठित हो जाती है, सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, लाभ-अलाभ, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जीवन-मरण आदि द्वन्द्वों में तथा इष्ट-वियोग-अनिष्ट-संयोग की परिस्थिति में व्युत्सर्ग-साधक समत्व में स्थित रहता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर हो जाती है, ज्ञाता-द्रप्टाभाव जाग जाता है। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव कैसा भी हों, वह उसमें प्रतिवद्ध न होकर आत्म-स्वभाव में स्थिर रहता है। उसके तन, मन, वचन, बुद्धि आदि शान्त और निश्चल हो जाते हैं। उसकी पुरानी आदतों, भौतिक रुचियों, संकीर्ण दृष्टिकोणों, कुस्वभाव, निकृष्ट प्रकृति में भी परिवर्तन हो जाता है। उसमें तितिक्षा. सहिष्णता तथा सहनशीलता बढ़ जाती है। उसके अन्तःकरण की धारा शुद्ध आत्मा, परमात्मा या वीतरागता की ओर प्रवाहित होती है। प्राण-शक्ति की ऊर्जा तथा मनोवल बढ़ जाने से शुद्ध आत्म-तत्त्व को उपलब्ध करने में कोई रुकावट नहीं रहती। व्युत्सर्ग तप का साधक शरीर और शरीर से सम्बद्ध परभावों तथा कपायादि विभावों से स्वभाव की तथा आत्मा और आत्म-गुणों की भिन्नता का साक्षात्कार कर लेता है। ____ वर्तमान युग में तन, मन, वचन तथा बुद्धि आदि अन्तःकरण बहुत ही भाग-दौड़ करता है, प्रायः भौतिक साधनों को जुटाने में, उसके कारण चित्त विविध पापकर्मों में प्रवृत्त होता है, फिर उनसे कर्मबन्ध होता है. फलतः जन्म-मरणादिरूप संसार परिभ्रमण करना पडता है. नाना द:खद फल भी भोगने पड़ते हैं। इन सवसे छुटकारे का सर्वोत्तम और सफल उपाय है-कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग। इनके अपनाने पर व्यक्ति के व्यर्थ में नष्ट होती हुई प्राण-शक्ति, जीवनी-शक्ति एवं ऊर्जा-शक्ति बच सकती है, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य की रक्षा हो सकती है। ___ अन्त में, व्युत्सर्ग तप के दो मुख्य प्रकार बताये हैं-द्रव्यव्युत्सर्ग और भावव्युत्सर्ग। द्रव्यव्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं-(१) कायव्युत्सर्ग, (२) गणव्युत्सर्ग, (३) उपधिव्युत्सर्ग, और (४) भक्तपानव्युत्सर्ग। भावव्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं-(१) कषायव्युत्सर्ग, (२) संसारव्युत्सर्ग, और (३) कर्मव्युत्सर्ग। ध्यान की पूर्वभूमिका के लिए तथा गमनागमन आदि प्रवृत्तियों में किंचित् दोष लगने पर कायोत्सर्ग का निधान है। कायिक और मानसिक कायोत्सर्ग की विधि तथा द्रव्य-भाव कायोत्सर्ग के चतुर्विध भंग करके रहस्य भी समझाया गया है। संलेखना-संथारा के लिये कायोत्सर्ग अनिवार्य है। शरीर को कायोत्सर्ग में सक्षम बनाने हेतु शरीर और आत्मा की पृथक्ता का, देहादि पर ममत्व या अध्यास के त्याग का अभ्यास करना आवश्यक है। अन्त में, कर्मविज्ञान ने शुद्ध कायोत्सर्ग और उसके मापदण्ड तथा विविध कायोत्सर्ग-व्युत्सर्ग साधकों का उदाहरण देकर इसका विशद ज्ञान करा दिया है। भेदविज्ञान की विराट् साधना कायोत्सर्ग या व्युत्सर्गतप की सिद्धि के लिए भेदविज्ञान की परिपक्व साधना अनिवार्य है। भेदविज्ञान के साधक को अपने अन्तर से मन-वचन-काया से प्रत्येक प्रवृत्ति करने से पूर्व सोचना चाहिए कि यह प्रवृत्ति आत्म-लक्षी है या शरीरादि-लक्षी, अथवा यह प्रवृत्ति आत्म-हितकारी है ? परिणाम में आत्मा के लिए इष्ट है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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