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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ८७ * स्थिर करने हेतु स्वाध्याय और ध्यान तप का निर्देश किया गया है। स्वाध्यायरूपी दर्पण में सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु अपने गुण-दोषों, अच्छाइयों-बुराइयों एवं कमजोरियों-मजबूरियों को निहारकर उन्हें दूर करने हेतु चिन्तन-मनन करता है। फिर अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा द्वारा चिन्तन, मनन, स्मरण करता है फिर अनुप्रेक्षा द्वारा अन्तर की गहराई में डूबकर सत्य के तट तक पहुँच जाता है। वस्तुतः स्वाध्याय अन्धकारपूर्ण 'जीवनपथ को आलोकित करने हेतु दीपक के समान है। इसके प्रकाश में व्यक्ति हेय, गेय और उपादेय को जान लेता है। मुमुक्षु एवं आत्मार्थी के लिए स्वाध्याय आधि, व्याधि और उपाधि को दूर करके समाधि में पहुँचाने वाला नन्दनवन है। जहाँ सभी समस्याओं और चिन्ताओं से दूर रहकर मनुष्य सच्चा आनन्द प्राप्त करता है। स्वाध्याय अज्ञानजनित दुःखों के निवारण का यथार्थ उपाय बताता है, कर्मों के निरोध और क्षय का उपाय बताकर सच्चे मार्गदर्शक का काम करता है। स्वाध्याय से क्लिप्ट चित्तवृत्तियों का निरोध होने से सहज ही योग-साधना हो जाती है। अतः स्वाध्याय से वर्षों के संचित कर्मों को शुद्ध भावों से क्षणभर में मिटा सकना सम्भव है। स्वाध्याय से चतुर्विध श्रुतसमाधि प्राप्त होने से सुध्यान के साथ आत्मा जुड़ जाता है। निःसन्देह स्वाध्याय से ज्ञान, दर्शन, चारित्र की शुद्धि और पुष्टि होने से आत्मा परमात्मा बन सकता है। अहर्निश स्वाध्याय करने से नित नये अर्थों की स्फुरणा, पदानुसारिणी लब्धि तथा प्रत्येक शंका का मनःसमाधान हो जाता है तथा असंख्यातगुणित श्रेणीरूप कर्म-निर्जरा भी हो जाती है। नियमित स्वाध्याय से श्रुतदेवता द्वारा पंचविध वरदान भी प्राप्त होते हैं-(१) बोधि, (२) समाधि, (३) परिणाम-विशुद्धि, (४) स्वात्मोपलब्धि, और (५) शिव-सौख्यसिद्धि। अतः आत्मिक-विकास के लिए स्वाध्याय तप में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। वस्तुतः स्वाध्याय अपना (आत्मा का) ही अध्ययन है, सम्यग्ज्ञान की आराधना है। मृगापुत्र, मुनि हरिकेशबल, समुद्रपाल मुनि आदि महाभाग श्रमणों ने अन्तःस्वाध्याय से अध्यात्मज्ञानरूपी चन्द्र की चाँदनी प्रगट कर ली थी। स्वाध्याय तप के पाँच प्रकार शास्त्रों में बताये हैं-वाचना, पृच्छा, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा। कर्मविज्ञान ने इन पाँचों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। सुध्यान का महत्त्व, लक्षण, विधि आदि का विश्लेषण स्वाध्याय और ध्यान परस्पर पूरक हैं। स्वाध्याय से प्रायः मन-वचन-काया की एकाग्रता कदाचित् होती है, परन्तु वह घनीभूत नहीं होती, जवकि ध्यान से इनकी एकाग्रता घनीभूत, स्थायी और सुदृढ़ होती है। इसलिए स्वाध्याय की अपेक्षा ध्यान = सुध्यान का अधिक महत्त्व है। कर्मावरणों को द्रुतगति से क्षीण करने के लिए धर्म-शुक्लध्यान ही सर्वश्रेष्ट उपाय है। वस्तुतः ध्यानरूप अग्नि के द्वारा आत्मा कर्मरूप काष्ट को भस्म करके अपना शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध-निरंजन स्वरूप प्राप्त कर सकता है। मुमुक्षु आत्मा को परोक्ष सत्ता (शुद्ध आत्मा) तक पहुँचने के लिए मन की प्रत्यक्ष सत्ता से ऊपर उठकर राग-द्वेषरहित चेतनाधारा से जोड़ने ला एकमात्र सुध्यान ही है। ध्यान-साधना के मुख्य पाँच हेतु हैं-(१) वैराग्य, (२) तत्त्वज्ञान, ३) निर्ग्रन्थता, (४) समचित्तता, और (५) बाह्याभ्यन्तर परिग्रह-जय। आत्म-धर्म को सुध्यान से कथमपि एक् नहीं किया जा सकता, अन्यथा धर्म प्राणविहीन, चेतनाशून्य हो जायेगा। कर्मों के क्षय से मोक्ष होता ।, कर्मक्षय होता है-आत्म-ज्ञान से, और आत्मा का शुद्ध और स्थायी ज्ञान होता है-सुध्यान से। इस दृष्टि मोक्ष-प्राप्ति के लिए ध्यान का सर्वाधिक महत्त्व कर्मविज्ञान ने बताया है, बशर्ते कि वह ध्यान अशुभ और गुम कोटि (पुण्यजनक) न होकर शुद्ध कोटि का हो. शुद्धोपयोगरूप हो, क्योंकि अपने लक्ष्य में एकाग्र. समय और स्थिर हो जाना ही सुध्यान का लक्षण है। अन्त में. अशुभ ध्यानद्वय के लक्षण और प्रकार जाकर धर्म-शुक्लध्यान के लक्षण, विधि. आलम्बन निरालम्बनता, प्रकार. अनुप्रेक्षाएँ तथा इनके लौकिक और लोकोत्तर फलों का भी वर्णन कर्मविज्ञान ने विशद रूप से किया है। वसर्ग तप : महत्त्व, लक्षण, प्रकार, विधि और शीघ्र कर्मक्षय का हेतु व्युत्सर्ग तप का लक्षण है-आत्म-लक्ष्यी विशिष्ट दृष्टि से तन, मन, बुद्धि, इन्द्रियों और कपाय का . विसर्जन करना उत्सर्ग करना, उन्मार्ग में जाने से रोकना, स्वेच्छा से इनके प्रति ममत्व-बुद्धि का त्याग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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