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* कर्म - सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ९३ *
विच्छेद। पाँचवाँ है-वृत्तिसंक्षययोग । अध्यात्म, भावना, ध्यान और समता; इन चार योगों से आध्यात्मिक उत्क्रान्ति उत्तरोत्तर अधिकाधिक होकर वृत्तिसंक्षययोग में पराकाष्ठा को प्राप्त होती है । पूर्वसेवा से अध्यात्म, फिर उससे भावना, भावना से ध्यान, ध्यान से समता और समता से वृत्तिसंक्षय, इन पाँचों के योग से मोक्ष -प्राप्ति होती है, वृत्तिसंक्षय इनमें मुख्य योग है। समस्त वृत्तियों का क्षय असम्प्रज्ञात समाधि में होता है। इसलिए वृत्तिसंक्षय यानी असंप्रज्ञातसमाधि ही मोक्ष के प्रति साक्षात् अव्यवहित कारण प्रतीत होता है। इससे पूर्व के चार योगों से सम्प्रज्ञातसमाधि प्राप्त होती है । सम्प्रज्ञातसमाधि में तामस और राजसवृत्तियों का तो सर्वथा निरोध हो जाता है, मगर सत्त्वप्रधान प्रज्ञाप्रकर्षरूप वृत्ति का उदय रहता है, जबकि असम्प्रज्ञातसमाधि में सभी वृत्तियों का क्षय होकर शुद्ध समाधि का अनुभव होता है। एक दृष्टि से देखा जाए तो पंचविधयोग का अन्तर्भाव आगमसम्मत पंचविध संवरयोग में अथवा मनःसमिति और मनोगुप्ति में हो जाता है । वृत्तिसंक्षययोग से ही वर्तमान में तरंगित बनी हुई आत्मा अपने शुद्ध निस्तरंग महासमुद्रसम निश्चल स्वभाव में अवस्थित हो सकती है।
बत्तीस योगसंग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में
मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति, व्यापार या क्रिया अथवा स्पन्दन का नाम योग हैं। इन त्रिविध योगों का अनुपयोग और दुरुपयोग दोनों ठीक नहीं, किन्तु सदुपयोग कथंचित् ठीक हो सकता है। जो योग राग-द्वेष से रहित और आत्म-भावों से सीधा सम्बन्धित है, उसे कहते हैं शुद्धोपयोग । यद्यपि योग को सैद्धान्तिक दृष्टि से आम्रव कहा गया है, किन्तु जैनाचार्यों ने अशुभ योग से निवृत्तिरूप प्रशस्तयोग को शुभ योगसंबर (अशुभ कर्मनिरोधरूप) माना है। शुभ योग में प्रवृत्ति को संयम में भी परिगणित किया है। आचार्य अभयदेवसूरि ने इसी सन्दर्भ में कहा है- जो ( मन-वचन-कायारूप) साधन मोक्षरूप साध्य से जोड़े जाते हैं, वे योग | = मन-वचन-काया के व्यापार हैं, वे यहाँ प्रशस्त या शुद्ध ही विवक्षित हैं। वे मोक्षरूप साध्य की या संवर- निर्जरारूप लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उपादेय हैं। जीव (साधकात्मा) को प्राप्त हुए पूर्वोक्त त्रिविधयोगरूप साधनों द्वारा शुभ या शुद्ध रूप में अध्यात्म-साधना में स्वयं पुरुषार्थ करने से ही मोक्षरूप साध्य परम्परा से प्राप्त हो सकता है। अर्जुन मालाकार आदि ने विपरीत दिशा में हिंसारत बने हुए त्रिविध साधनों को मुनि - बनकर त्रिविध साधनों का सदुपयोग तथा शुद्धोपयोग किया तो उन्हीं साधनों से मोक्षरूप साध्य प्राप्त किया। इस दृष्टि से यहाँ मोक्षरूप साध्य की प्राप्ति के लिए समवायांगसूत्र में उक्त ३२ योगों का संग्रह किया है, जो सभी अशुभ योग निवृत्तिरूप संवर की साधना रूप हैं, अथवा प्रशस्तयोग की साधना में निमित्तकारण हैं। साथ ही मोक्ष से जोड़ने वाली शुद्धोपयोगरूप साधना द्वारा निर्जरा के भी कारण हैं। कर्मविज्ञान ने इन बत्तीस योगों का उल्लेख किया है। इस योगसंग्रह के अर्थ और फलितार्थ पर विचार करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनमें से कई योग तो आम्रव-निरोधरूप या अशुभ योग निरोधरूप संवर से सम्बन्धित हैं। कई आंशिकरूप से कर्मक्षय के कारणभूत होने से सकामनिर्जरा से सम्बन्धित हैं। जैसे - आपत्ति आने पर समभावपूर्वक धर्म में दृढ़ रहना, तितिक्षा, विनय, व्युत्सर्ग तप, प्रायश्चित्तकरण, आलोचना द्वारा आत्म-शुद्धि, संलेखना - संथारापूर्वक समाधिमरण की आराधना आदि सकामनिर्जरा और उत्कृष्ट भावरसायन आवे तो सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष के हेतु हैं।
सुध्यानद्वय के रूप में बत्तीस प्रकार का योगसंग्रह
योग शब्द 'समाधि' और 'संयोग' दोनों अर्थों का द्योतक होने से यह मोक्ष-प्राप्ति का सीधा साधन भी है । सर्वसंकल्प - विकल्पों से रहित समत्व स्थिति को 'समाधि' और आत्मा और परमात्मा के अविभक्त 'संयोग' को संयोगरूप परम योग कहा गया है। जो केवलज्ञानादि से आत्मा का योग (संयोग) करा देता (जोड़ देता) हैं, उसे भी योग कहते हैं। जैनागमों में तथा वाद के आचार्यों ने (विशेषतः परिपक्वदशापन्न ) ध्यान को ही 'समाधि' कहा है। इस दृष्टि से धर्मध्यान के १६ भेद तथा शुक्लध्यान के १६ भेद, यों ध्यान के ३२ भेदों को समाधिरूप योगसंग्रह के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ध्यानरूप योगसंग्रह में योग के वे समस्त साधन निर्दिष्ट हैं तथा उत्तरोत्तर असंख्यात असंख्यातगुणी सकामनिर्जरा करने के लिए ध्यान (विशेषतः शुक्लध्यान) मोक्ष का बहुत बड़ा साधन है। आगे इसी निबन्ध में धर्म- शुक्लध्यान का स्वरूप
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