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* ८४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
और जो अमायी सम्यग्दृष्टि होते हैं, वे अल्पकर्म, अल्पआम्रव, अल्पक्रिया और अल्पवेदना वाले होते हैं। वस्तुतः मिथ्यादृष्टि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय या सभी पंचेन्द्रिय अकामनिर्जरा कर पाते हैं, जबकि सम्यग्दृष्टि अल्पकर्म यावत् अल्पानव-अल्पवेदन होते हैं, इसलिए सकामनिर्जरा = विशिष्ट श्रेयस्करी निर्जरा कर पाते हैं। जिसकी निर्जरा प्रशस्त है, वही श्रेयस्कर है, चाहे वह अल्पवेदन वाला हो, चाहे महावेदन वला। ईश्वर न तो किसी के कर्म लगाता है, न ही छुड़ाता है। जीव स्वयं ही कर्म करता है और स्वयं ही उसके उदय में आने पर फल भोगकर निर्जरा करता है। अकामनिर्जरा से कष्ट-सहन अधिक, वेदन अधिक, कर्मक्षय कम होता है। इसीलिए अब तक की गई निर्जरा से कर्मों का क्षय अल्प मात्रा में हुआ, किन्तु नये कर्म और बँधते गए, जबकि सकामनिर्जरा लगातार होती रहे तो कर्मों का क्षय शीघ्र होता रहता है, नये कर्म बहुत ही अल्प बँधते हैं। यही अन्तर है-अज्ञानी और ज्ञानी के कर्मक्षय (निर्जरा) करने में। अज्ञानी जिन कर्मों का क्षय बहुत-से करोड़ों वर्षों में कर पाता है, उन्हीं कर्मों को त्रिगुप्तियुक्त ज्ञानी पुरुष एक श्वासोच्छ्वास मात्र में क्षय कर' डालता है। आगे कर्मविज्ञान में औपपातिकसूत्रोक्त विविध अकामनिर्जरा वाले बालतपस्वियों आदि का वर्णन सविस्तार किया गया है, जो अनाराधक (विराधक) होते हैं। इसी प्रकार सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष साधक के लिए सकामनिर्जरा ही अभीष्ट है। उसका स्वरूप तथा वह कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे हो सकती है? इसका विशद विवेचन किया गया है। तथैव गुणस्थान क्रम से पात्रों की स्थिति के अनुसार उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणी सकामनिर्जरा होती है. इसका भी स्पष्टीकरण किया गया है। सविपाक और अविपाकनिर्जरा, इन द्विविध निर्जराओं में अविपाकनिर्जरा ही शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति की कारण है। जिसका विस्तृत विवेचन इसी भाग के १६वें निबन्ध में किया गया है। अन्त में, सराग-सम्यग्दृष्टि या सराग-संयमी के अशुभ कर्मों की किन-किन कारणों से महानिर्जरा और महापर्यवसानता होती है ? इसका विशद निरूपण है। तथैव सकामनिर्जरा के विविध स्रोतों तथा अवसरों का विविध शास्त्रीय उदाहरणों सहित प्रतिपादन किया गया है। सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप ____ मनुष्य की जड़ता, कटोरता एवं क्रोधादि कषाय तथा नोकपायों की विकारता को सुकोमलता, सद्बौद्धिकता और निर्विकारता में बदलने और उसे कप्ट-सहिष्णुता एवं नम्रता के साँचे में ढालने के लिए विविध बाह्याभ्यन्तर तप का ताप आवश्यक है। इस दृष्टि से मानव-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कष्ट-सहिष्णुता, तितिक्षा, श्रद्धा, धृति, सेवा आदि के रूप में तप की आवश्यकता है। मानसिक चंचलता, नास्तिकता, स्वच्छन्दतापूर्ण मर्यादाहीनता, आरामतलबी, शारीरिक सुख-सुविधा आदि में कटौती तपश्चर्या के माध्यम से ही हो सकती है। समस्त दुर्बलताओं, दुश्चिन्ताओं एवं उद्विग्नताओं से उबरने, सच्ची आत्मिक सुख-शान्ति पाने तथा शारीरिक-मानसिक-आत्मिक समाधि एवं क्षमताएँ बढ़ाने का एकमात्र उपाय है-तपःसाधना भगवती आराधना के अनुसार-“संसार में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है, जो निर्दोष तप से प्राप्त न होता है।" साथ ही कर्मविज्ञान ने उनके आक्षेपों का भी समाधान किया है, जो यह कहते हैं कि तप दुःखात्मक है असातावेदनीय कर्मोदयरूप है, संवर-निर्जरोत्पादक मोक्षांग नहीं है। सम्यक्तप ऐसा नहीं है, उससे योगे और इन्द्रियों को हानि नहीं होती, बल्कि तन-मन-वचन-बुद्धि और इन्द्रियाँ तप से परीषहोपसर्ग-सहन, सक्षम परिपुष्ट, एकाग्र, सुदृढ़, स्वस्थ एवं सक्रिय होते हैं, संवर-निर्जरा योग्य बन जाते हैं। स्थूलशरीर को तपाने के तैजस् कार्मणशरीर पर अचूक प्रभाव सम्यक् बाह्यतप से होता है। वस्तुतः दुःख-दर्द उत्पन्न होता हैकर्मशरीर में, परन्तु प्रकट होता है स्थूलशरीर में। स्थूलशरीर के माध्यम से कर्मशरीर को तपाया जाता है. अज्ञानतप और सम्यक्तप के स्वरूप और उद्देश्य के अन्तर को समझने पर ही यह तथ्य समझ में आ सकता है कि सम्यक्तप तन-मन को तपाकर आत्म-शुद्धि करता है, जिससे कर्ममल दूर हो जाते हैं। सम्यक्तप से आत्मा के ज्ञानादि गुण निर्मलतर होते जाते हैं, बशर्ते कि उससे संवर और निर्जरा होती रहे और तन, मन, इन्द्रियाँ स्वस्थ एवं समाधिस्थ रहें, दुनि न हो तथा कपाय-नोकपायादियुक्तं या रागादियुक्त निदान किसी भी प्रकार का न किया जाए। सम्यक्तप का उद्देश्य सिद्धियों, लब्धियों और इह-पारलौकिक निदानों के चक्कर में फँसना नहीं है; अपितु आत्म-शुद्धि और मोक्ष-प्राप्ति है; जबकि नौ प्रकार के निदान से
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