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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ८५ * आत्म-शुद्धि की साधना नष्ट, विकृत और अध्यात्म लाभ से वंचित हो जाती है। अन्त में, कर्मविज्ञान ने सम्यक्तप और बाल (अज्ञानपूर्वक) तप का अन्तर बहुत ही विशद रूप से शास्त्रीय प्रमाणों सहित समझाया है। बाह्य और आभ्यन्तर तप का अन्तर, उनसे होने वाली समाधि-असमाधि, लाभ-अलाभ का चित्रण तथा तप के ३५ प्रकारों में कौन-सा तप भगवदाज्ञा में है, कौन-सा नहीं? इसका भी निर्णय किया गया है; अशुद्ध तप और शुद्ध तप का विवेक भी बताया गया है। बाह्यतप के स्वरूप और प्रकारों का भी विवेचन किया गया है। वस्तुतः परीषह-विजय, उपसर्ग-सहन, कष्टों को समभाव से सहने एवं संलेखना-संथारे के अभ्यास के लिए भी अनशनादि ६ बाह्यतपों का अभ्यास करना आवश्यक है। छह आभ्यन्तर तप : कर्मनिर्जरा में कैसे-कैसे सहायक ? इसी सप्तम भाग के ११ से १५वें निबन्ध तक आभ्यन्तर तप के स्वरूप एवं उद्देश्य तथा इनके छह प्रकारों के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन किया है। बाह्याभ्यन्तर तप : लक्षण, योग्यता, लक्ष्य-तप बाह्य हो, चाहे आभ्यन्तर दोनों का उद्देश्य और लक्ष्य आत्म-शुद्धि और समाधि है। सम्यक्तपःसमाधि अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न समझने पर तथा शक्ति को न छिपाकर सम्यक् प्रकार से उनमें प्रवृत्त होने पर ही होती है। बाह्य तप आभ्यन्तर तप का प्रवेशद्वार है। बाह्य तप में बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा रहती है, जबकि आभ्यन्तर तप में चार अन्तःकरण के अतिरिक्त अपनी रुचि, योग्यता और क्षमता की अपेक्षा रहती है। दोनों प्रकार के तप एक-दूसरे के पूरक हैं। बाह्य तप का महत्त्व आभ्यन्तर तप से कथमपि कम नहीं है। ये दोनों सापेक्ष और अन्योन्याश्रित हैं। आभ्यन्तर तप का उद्देश्य अन्तःकरण की दुष्प्रवृत्तियों को सुप्रवृत्तियों में बदलना है। वस्तुतः मन की दुष्परिणति को सम्यग्ज्ञानपूर्वक सुपरिणति या शुद्ध परिणति में बदल देना ही आभ्यन्तर तप है। पदाधीन पर-पदार्थाश्रित भोगसुखों का मन से भी परित्याग करके मन को स्वाधीन प्रशमसुखों में लीन करना बाह्याभ्यन्तर सम्यक्तप का उद्देश्य है। मुमुक्षु को सकामनिर्जरा या अविपाकनिर्जरा के लिए इन्हीं द्विविध तप की साधना करनी चाहिए। पड्विध आभ्यन्तर तप से मन का सर्वांगीण परिवर्तन हो जाता है। जीवन में इनके परिनिष्ठित हो जाने पर कर्मों की अनायास निर्जरा और महानिर्जरा तक हो सकती है। छह आभ्यन्तर तप ये हैं-9) प्रायश्चित्त. (२) विनय.(३) वैयावत्य. (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, और (६) व्यत्सर्ग। प्रायश्चित्त : स्वरूप, उद्देश्य, अन्तःकरण शुद्धि रूप लक्ष्य-प्रायश्चित्त की मुख्य तीन परिभाषाएँ हैं(१) अतिचारों (दोषों) की शुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न, (२) पापों का छेदन, और (३) अपराधों का शोधन। अन्तःकरण की शुद्धि के बिना आत्म-साधना में सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिए आत्म-विकास ..की अभिवृद्धि से पहले अन्तःकरण की परिशुद्धि के लिए आभ्यन्तर तप में सर्वप्रथम प्रायश्चित्त तप का विधान है। . .पापशोधनरूप प्रायश्चित्त न करने पर जन्म-मरणादि के भयंकर दुःख भोगने पड़ते हैं। प्रायश्चित्त कर सेने पर व्यक्ति विराधक न रहकर आराधक हो जाता है, जिससे भविष्य में अत्यल्प जन्म-मरण रह जाते । उत्कृष्टतः सात या आठ भवों में मोक्ष प्राप्त हो जाता है। पापनाश से आत्म-शुद्धि के लिए चार मुख्य क्रियाएँ बताई गई हैं-(१) आलोचना, (२) निन्दना (पश्चात्ताप), (३) गर्हणा, और (४) प्रतिक्रमण। इसके - अनन्तर इन चारों का विस्तृत स्वरूप, उद्देश्य, प्रकार एवं इनसे होने वाली उपलब्धियों का उदाहरण सहित विवेचन प्रस्तुत किया गया है। आगे आध्यात्मिक तथा मनोकायिक रोगचिकित्सा का निरूपण, आलोचना करने और आलोचना सुनकर प्रायश्चित्त देने वालों की अर्हताओं का तथा प्रायश्चित्त तप के दस प्रकारों का विवेचन किया गया है। . विनय और वैयावृत्य तप : अन्तःकरण को नम्र, सरल, निरहंकार और निःस्पृह वनाने हेतु-विनय तप का उद्देश्य है-अहंकारादि जनित कर्ममलों को नष्ट करना। ज्ञानादि रत्नत्रय तथा द्वादशविध तप के विषय में सुविशुद्ध परिणाम. होना तथा इन आत्म-गुणों में आगे बढ़े हुए महान् पुरुषों के प्रति नम्रवृत्ति रखना अथवा सम्यग्ज्ञानादि चतुष्टयरूप मोक्षमार्ग के दोषों को दूर करना तथा इनके दोषों को दूर करने के लिए जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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