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________________ * ८२ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * __ वस्तुतः ये तीनों योगों (करणों) का अपना-अपना कार्य है। ये तीनों कर्मबन्ध कराने में भी कारणं हैं और कर्मनिरोध या कर्मक्षय कराने में भी। उपयोगरहित के लिए ये दोष के हेतु हैं, उपयोगयुक्त के लिए गुण के हेतु। जीव जब तक चौदहवें गुणस्थान तक नहीं पहुँच जाता, तब तक योग तो रहेंगे ही। शुभ योग से शुभ (पुण्य) बन्ध होता है और अशुभ योग से अशुभ (पाप) बन्ध। जहाँ तक साम्यरायिक या इरियावही क्रिया है, वहाँ तक तीनों योग उस व्यक्ति में होते हैं। और योग है, वहाँ तक आस्रव हैं और आम्रव से कर्मबन्ध होता है। परन्तु तेरहवें गुणस्थानवर्ती ईर्यापथिक क्रिया वाले में आस्रव होते हुए भी कषाय न होने से सिर्फ प्रदेशबन्ध होता है, स्थिति-अनुभागबन्ध नहीं। प्रदेशबन्ध भी मात्र दो समय का सातावेदनीय का नाममात्र का बन्ध है और चौदहवें गुणस्थान में दोनों ही प्रकार की क्रिया न होने से तीनों योग भी नहीं हैं। वहाँ अयोग की स्थिति होने से न तो आम्रव है, न ही बन्ध। वहाँ पूर्ण संवर है। ... __ यों तो मिथ्यादृष्टि के भी मन-वचन-काय-योग (प्रवृत्ति) शुभ हो तो शुभाम्रवरूप पुण्यवन्ध होता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि के शुभ योग को उत्तराध्ययन, भगवतीसूत्र एवं स्थानांगसूत्र आदि आगमों में प्रशस्त (उत्तम) एवं अशभ योग से निवृत्त होने के कारण संवर भी कहा गया है। आगमों में यत्र-तत्र शभ योगसंवर का उल्लेख मिलता है। निष्कर्ष यह है कि शुभ योग में भी प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार हैं। मिथ्यादृष्टि-परायण व्यक्ति का शुभ योग प्रशस्त नहीं है; जबकि सम्यग्दृष्टि का शुभ योग प्रशस्त माना जाता है। प्रशस्त शुभ योगसंवर की भावधारा के फलस्वरूप देव-गुरु-धर्म के प्रति मूढ़तारहित, किन्तु प्रशस्त रागात्मक होती है। पर्युपासनायुक्त समर्पणवृत्ति होने से उत्कृष्ट रसायण आने से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन भी संभव है। कदाचित् प्रशस्त शुभ योगसंवर की भूमिका पर आरूढ़ होकर शुद्धोपयोग के मार्ग पर बढ़ता-बढ़ता एक दिन अयोगसंवर की भूमिका को प्राप्त कर लेता है। यही कारण है कि भगवान महावीर ने कर्म (प्रवृत्ति या योग) को अंतिम मंजिल न कहकर प्रशस्त शुभ योगरूप या शुद्धोपयोगरूप योग (कर्म) को मार्ग और कर्मों से सर्वथा मुक्तिरूप लक्ष्य-अंतिम मंजिल-अकर्म (अयोग) को कहा है। उन्होंने यह भी कहा कि आत्म-स्थिरता होने पर प्रत्येक प्रवृत्ति अयोगसंवर का रूप ले सकता है और आत्म-स्थिरता के लिए मुख्य तीन उपाय हैं-(१) कर्ममुक्ति के लक्ष्य के प्रति जागृति, (२) प्रतिक्रियाविरति का प्रवल अभ्यास, और (३) विधेयात्मक चिन्तन। इन तीनों उपायों के अवलम्वन से संवर के साथ-साथ निर्जरा भी अनायास हो जाती है। वचन-संवर की सक्रिय साधना ___ मन पर ब्रेक लगाने की अपेक्षा कभी वचन पर ब्रेक लगाना बहुत जरूरी होता है। वचन-संवर क्रियान्वित न होने से निरर्थक वकवास, गालीगलौज, कलह, वितण्डावाद, निन्दा, चुगली, पापवर्द्धक उपदेश आदि कारणों से आस्रव और बन्ध होते रहते हैं। मुमुक्षु के लिए वचन-संवर को क्रियान्वित करना आवश्यक है। अन्यथा प्रतिक्रिया और आत्म-गुणों की क्षति होती है। अहंकारवश मानव दूसरों की भूल देखने का आदी होने से स्वयं की भूल को नहीं देखता, बल्कि उसे दबा देता है तथा दूसरों की गलती के प्रति असहिष्णु बन जाता है। फलतः वचन-संवर का अवसर चूक जाता है। अनिवार्य परिस्थिति में भूल देखने और कहने के लिए भी अधिकारी वने, उसमें यह विवेक होना चाहिए कि अनिवार्य परिस्थिति में भी दूसरे की भूल को किसे व कब कहे, किन शब्दों में और कैसे-कैसे कहे ? भगवान महावीर ने गौतम स्वामी, महाशतक श्रावक तथा मेघ मुनि को जिज्ञासु देखकर उनकी भूल सुझाई और उन्होंने अपनी भूल सुधारी. किन्तु गोशालक. कोणिक आदि को उनकी विपरीत वृत्ति देखकर भूल बताने से वे विरत रहे, मौन भी रहे। वचन-संबर का साधक जिज्ञासु, सुलभबोधि और मुमुक्षु को यदि वह धर्म से डिग रहा हो तो उसके प्रति वात्सल्यभाव रखकर. उसकी निन्दा, बदनामी, ताड़ना-तर्जना न करते हुए सौम्यभाव से सत्य-अहिंसादि धर्म में स्थिर करने का प्रयत्न करे। बार-बार टोकने, जाहिर में उसकी निन्दा करने, झिड़कन, टक-टक करने या तुरन्त कहने के बजाय यथावसर. यथापात्र तथा यथायोग्य सौम्य शब्दों में एकान्त में वात्सल्यभावपूर्वक कहना भी शुभ योगरूप वचन-संवर है; साथ ही मनःसंवर का भी लाभ हो सकता है। अभ्याख्यान, पैशुन्य और पर-परिवाद आदि भी वचन-संवर में अत्यन्त बाधक हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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