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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ८१ *
उच्छृखल कामभोगों पर तो नियंत्रण अत्यावश्यक है ही, परन्तु मुमुक्षु को तो कामवृत्ति से विरत होकर ब्रह्मचर्य का सर्वात्मना पालन में अपनी शक्ति लगानी चाहिए।
कामवृत्ति को जगाने में मूल कारण तो वेदमोहनीय कर्म है, जो आन्तरिक है, उपादानकारण है, परन्तु बाह्यकारण या निमित्तकारण हैं-कुछ शारीरिक कारण और कतिपय नैमित्तिक वातावरण। कामवासना को उत्तेजित करने में अशुभ संस्कार भी कारण हैं; जो निमित्त मिलते ही भड़क उठते हैं। अतः कामसंवर या कामनिर्जरा के साधक को आत्मा में निहित कुसंस्कारों के उन्मूलन करने के लिए बाह्याभ्यन्तर तप, स्वाध्याय एवं जप आदि करने चाहिए अथवा अशुभ निमित्तों से सदैव सर्वत्र बहुत दूर रहा जाए, ताकि वे कुसंस्कार निमित्त न मिलने से स्वतः शान्त हो जायेंगे। कामवासना (वेदमोहनीय) के अन्तर्मन में पड़े हुए कुसंस्कार निमित्त मिलते ही बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी साधक-साधिकाओं को पछाड़ डालते हैं। यह तथ्य जैमिनी, सिंहगुफावासी मुनि, संभूति मुनि, रथनेमि, लक्ष्मणा साध्वी, सुकुमालिका साध्वी आदि का उदाहरण देकर सिद्ध किया है। इसलिए काम-संवर (ब्रह्मचर्य) साधक के लिए नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियाँ और दसवाँ कोट, यों दशविध ब्रह्मचर्य समाधि का मन-वचन-काया से आचरण करना आवश्यक है। निमित्तों से बचने के पूर्वोक्त दस उपायों के अतिरिक्त कामोत्तेजक दृश्य, श्रव्य, स्पृश्य, खाद्य वैषायिक निमित्तों से भी बचना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त पूर्वमुक्त भोगों का स्मरण, बार-बार उनका बखान, कामक्रीड़ा, सहशिक्षण, विकारपूर्वक प्रेक्षण, एकान्त में भाषण, तथाविध काम-वासना संकल्प, बार-बार काम-वासना पूर्ति का अध्यवसाय करना तथा काम-वासना-सेवन करना, ये कामोत्तेजना के अष्टविध विकल्प भी त्याज्य हैं। वस्तुतः अपरिपक्व साधक के लिए अशुभ निमित्तों से बचना अत्यावश्यक है। साधक को काम के निमित्त कहीं भी, किसी भी दैनिकचर्या करते समय मिल सकते हैं, उसे प्रतिक्षण सावधान रहना चाहिए। ___ काम-संवर-साधक को अपना उपादान शुद्ध एवं सुदृढ़ बनाने हेतु मोक्ष लक्ष्य एवं संवर-निर्जरारूप धर्मपक्ष पर स्थिर रहना अनिवार्य है। संवेग और वैराग्य के लिए अनित्य, अशरण, अशुचि, एकत्व आदि अनुप्रेक्षाओं-भावनाओं का प्रयोग करना चाहिए। उपादान-शुद्धि के लिए लक्ष्य विराट् होना चाहिए, साथ ही एक ओर से संवर और दूसरी ओर से निर्जरा-यानी निरोध और शोधन दोनों आवश्यक हैं। अज्ञात मन (अन्तर्मन) में पड़े हुए काम-वासना के कुसंस्कारों के संचय को क्षय करने के लिए तप, कषाय-विजय, प्रायश्चित्त, कायोत्सर्ग, परीषह-विजय, समभाव, धर्मध्यान, प्रतिसंलीनता, काम-क्लेशादि तप आदि का सतत अभ्यास अपेक्षित है। साथ ही काम-वासना का निमित्त मिलते ही उससे तत्काल पीठ फेर लेना,
ज्ञाता-द्रष्टाभाव रखने से काम-निरोधरूप संवर हो सकेगा। परलोकदृष्टि और पापभीरुता भी काम-संवर का • एक उपाय है। पंचपरमेष्ठी भगवन्तों की शरण, दुष्कृतगर्हा, आलोचना, निन्दना (उत्कट पश्चात्ताप),
प्रायश्चित्त एवं सुकृतानुमोदना भी उपादान-शुद्धि के उपाय हैं। कायराग से निवृत्ति के लिए परमात्म-भक्ति ' तथा गुरुकृपा भी सरस, सरल और प्रबल कारण है। अन्त में, कर्मविज्ञान ने काम-वासना शान्त करने के कतिपय प्रयोग सूत्र भी दिये हैं। योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल
सांसारिक जीवों की प्रत्येक प्रवृत्ति मन-वचन-काया से संयोग होने पर होती है, इसलिए इन तीनों की प्रवृत्ति को जैनदर्शन में योग कहा है। यह भी निश्चित है कि अकेली आत्मा या आत्म-विहीन अकेला तन, अकेला मन या अकेला वचन कोई भी प्रवृत्ति या क्रिया नहीं कर सकता, जब आत्मा के साथ मन, वचन या तन में से किसी एक, दो या तीनों का संयोग होता है, तभी योग होता है, इसी योग के शुभ और अशुभ दो मार्ग हैं। शुभ योग से शुभानव और अशुभ योग से अशुभासव होता है, यही चतुर्गतिकरूप संसार का कारण है। इस प्रकार शुभाशुभ कर्मों का आम्रव चक्र क्रिया, कर्म और लोक के साथ संयोग के रूप में चलता है, उनका सुख-दुःखादि रूप में अनुभव करने वाला (संसारी) आत्मा है। ये तीनों योग आत्मा के लिए तीन करण हैं। पुद्गल अपने आप में न तो अच्छा है, न बुरा, आत्मा इसका उपयोग कैसे करती है ? इस
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