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________________ * ८० * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * वैरभाव और शत्रुता बाँध लेता है। अतः आत्मार्थी और मुमुक्षुसाधक को जहाँ तक हो सके कपायों से दूर रहने का अपना स्वभाव बना लेना चाहिए। इहलौकिक-पारलौकिक पापकर्मजनित दुःखों से बचने का सर्वोत्तम उपाय भी यही है कि दीर्घदर्शी बनकर प्रत्येक कार्य के भावी परिणाम का तथा पापकर्म के फल का विचार करे और कषाय के प्रत्येक पहलू को जानकर उस पर विजय पाने का प्रयत्न करे। सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन एवं निर्लिप्त भरतचक्री की तरह ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहने से अनायास ही अकषाय-संवर का अभ्यास हो सकता है। फिर भी कषाय-विजय के साधक को अन्तर में उदित कषाय को तुरन्त सावधान होकर निष्फल करना, सफल न होने देना तथा भविष्य में कोई कषाय उदय में भी न आए, ऐसा मानस बनाना चाहिए। व्यवहार में क्रोध को क्षमादि-उपशमभाव से, अहंकार को नम्रता और मृदुता से, माया को सरलता से और लोभ को सन्तोषवृत्ति से जीतने का अभ्यास करना चाहिए। मैत्री आदि चार भावनाओं तथा बारह अनुप्रेक्षाओं से भी कषाओं का निरोध हो सकता है। पुण्य बेचकर कषायों को खरीदने से अकषाय-संवर-साधना को सावधान रहना चाहिए। कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध कषाय और नोकषाय, ये दोनों ही जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, आधि और उपाधिरूप दुःखों में बार-बार भटकाते हैं, इसलिए अकषाय-संवर के साधक इन दोनों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम करना हितावह है। जिस साधक में उत्कट क्रोधादि हों, उसका तप बालतप है, निरर्थक है, संसारवर्द्धक है, आत्म-शुद्धिकारक नहीं। इसके पश्चात् क्रोध, मान, माया, लोभ की तीव्रता से होने वाली आत्म-गुणों की क्षतियों, सामाजिक जीवन में उसके प्रति होने वाली अप्रतीति, अनादर, अपकीर्ति आदि का विशद वर्णन किया गया है। तीव्र क्रोध से उपार्जित आत्म-शक्तियाँ कैसे नष्ट होकर दुर्गति का कारण बन जाती हैं, इसे उदाहरण देकर स्पष्ट कर दिया। क्रोध आदि के निमित्त मिलने पर भी जो साधक इन पर तुरन्त नियंत्रण कर लेता है, उसकी आत्मा शुद्ध स्वभाव में रमण करती हुई किसी प्रकार केवलज्ञान प्राप्त कर लेती है, यह भी उदाहरणों द्वारा स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है। मानकषाय के वश मानव किस प्रकार उच्च तपःसाधना करने पर भी केवलज्ञान को प्राप्त नहीं कर पाता? आठ प्रकार के मद तथा माया के वश होकर मानव अपना कितना अधःपतन कर लेता है ? ये तथ्य भी उदाहरण सहित प्रस्तुत किये गए हैं। मान और मायाकषाय से आत्म-गुणों की हानि होती है, फलतः अप्रमत्त होकर इनसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए। लोभ तो समस्त पापों का बाप है। इसे भी सोदाहरण प्रस्तुत करके इससे तथा इसके विभिन्न बाह्याभ्यन्तर रूपों से बचने का उपाय भी बताया गया है। आत्म-शक्ति, आत्म-गुणवृद्धि, स्वरूपावस्थिति, संसार एवं कर्म के शीघ्र क्षय के लिए इन चारों कषायों से आत्मा की रक्षा करनी चाहिए। नोकषाय भी कषाय को उत्तेजित करने वाले उपजीवी दुर्गुण हैं। ये नौ हैं-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुसा; ये छह और तीन वेद (काम) स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। हास्यादि से कैसे-कैसे मनुष्य घोर कर्म बाँध लेता है और इनसे बचने के उपाय क्या-क्या हैं ? इन सबका वर्णन भी विस्तार से कर्मविज्ञान ने किया है। अन्त में, वेदत्रय (कामवासना) क्या हैं ? ये क्यों उत्पन्न होती हैं ? इनसे बचने के क्या-क्या उपाय हैं ? इनका संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इस प्रकार कषायों और नोकषायों से विरत होने से संवर और निर्जरा का लाभ मिल सकता है। कामवृत्ति से विरति की मीमांसा कर्मविज्ञान की भाषा में वेद नोकषाय मोहनीय को ही 'कामवृत्ति' कहा जाता है। यह तो सर्वविदित है कि काम-शक्ति का दुरुपयोग किया जाए तो जीवन का सर्वनाश है और उसी काम-शक्ति का उदात्तीकरण करके सदुपयोग किया जाए अथवा उसकी सुरक्षा करके आत्म-विकास में पुरुषार्थ किया जाए, आत्मा के तप, संयम आदि गुणों में शक्ति लगाई जाए तो उससे कर्मों का संवर और निर्जरा हो सकती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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