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________________ कमविज्ञान : भाग ७ का सारांश - संवर और निर्जरातत्त्व का स्वरूप-विवेचन अप्रमाद-संवर का सक्रिय आधार और आचार अप्रमाद कर्मों को आते हुए रोकने वाला सबसे सच्चा प्रहरी है। यह न हो तो साधक बात-बात में, पद-पद पर गलती या भूल कर सकता है, साधना को दूषित कर सकता है। साधु-जीवन में ही क्यों, गृहस्थ जीवन में भी प्रमाद की उपयोगिता है। भगवान महावीर ने तो गौतम गणधार जैसे उच्च साधक को यही उपदेश दिया था--"गौतम ! समयमात्र भी प्रमाद मत करो।" जो जान-बूझकर अपनी पूजा-प्रतिष्ठा-यश-कीर्ति के लिए प्रमाद करता है, यानी छलकपट, दम्भ-दिखावा या प्रतिष्ठा-प्रसिद्धि के लिए दानादि का आचरण करता है। वह शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव वस्तुओं के साथ रहते हुए प्रमादाचरण करता है, जबकि अप्रमत्त साधक इनके साथ रहते हुए भी अनासक्त, निर्लिप्त, निःस्पृह तथा मन्द-कषायी एवं यतनाचारपूर्वक रहकर प्रमादाचरण से दूर रहता है। अप्रमादी साधक अपनी प्रत्येक चर्या और प्रवृत्ति में प्रमादाचरण के विविध प्रकारों से बचकर चलता है। प्रमाद के मद्य, विषय, कषाय, निद्रा (द्रव्य-भाव निद्रा) और विकथा; इन पाँच मोर्चों पर अप्रमादी साधक सदा जागरूक रहकर चर्या करता है। उक्त यतनाशील अप्रमत्त साधक स्व-पर-हिंसा से दर अनारम्भी रहता है. जिससे अपवादिक स्थिति में द्रव्य-हिंसा होने पर भी अन्तरंग (भाव) विशुद्धि के कारण निर्जरा का उपार्जन कर लेता है। अप्रमाद-संवर के साधक की द्रव्य-भावचर्या का भी विधान कर्मविज्ञान ने किया है। अप्रमाद-संवर का साधक परिवार, तप, पर्याय, क्षय (या अवस्था), श्रुत लाभ, पूजा सत्कार; इन छह बातों में आत्मवान् बनकर संवर-निर्जरा का लाभ उठाता है। अन्त में अप्रमाद-संवर का प्रेक्टिकल पाठ एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है। साथ ही स्थानांगसूत्रोक्त आठ बातों में अप्रमत्त रहकर पराक्रम करने का विधान भी शुभ योग-संवर के लिए उपयोगी और सरल चर्या का प्रेरक बताया गया है। अकषाय-संवर का सक्रिय आचार . कषाय कितना बाधक और घातक है-कर्ममुक्ति के अभिलाषी साधक के लिए? यह सर्वविदित है। कर्मों का स्थितिबन्ध और रसबन्ध कषायों की तीव्रता-मन्दता पर आधारित है। संसार-परिभ्रमण भी मुख्य रूप से कषाय पर निर्भर है। अतः संसाररूपी कारागार से मुक्त होने के लिए अकषाय-संवर की साधना अनिवार्य है। कषाय आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है, उससे आत्म-गुणों की क्षति ही है, आत्म-गुणों में वृद्धि कदापि नहीं। अतः सम्यग्दृष्टिपूर्वक कषायों का निरोध, उदात्तीकरण, मार्गान्तरीकरण अथवा स्वेच्छा से कषायों का उपशमन, दमन या नियंत्रण करने से कषाय छूट सकते हैं, अकषाय-संवर हो सकता है तथा पूर्वकृत कषायजनित कर्मबन्ध के फलभोग के समय समभाव, धैर्य और शान्ति से उनका फल भोग लेने से कषायजनित कर्मों की निर्जरा हो सकती है। कषाय-सेवन के दुष्परिणाम बताते हुए कहा गया है-कषाय से इहलोक और परलोक कहीं भी, किसी भी स्थिति में सुख-शान्ति नहीं है। क्रोधादि तीव्र कपाय करने से सामने वाले में असद्भाव, अप्रीति और सेवाभाव में कमी आ जाती है। तीव्र कषायों के कुचक्र में फँसा हुआ मानव अपने संसार को अधिकाधिक ... बढ़ाता जाता है, वह अपनी आदतों से लाचार होकर नाना अनर्थ कर बैठता है, अनेक प्राणियों के साथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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