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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ६५ * योग, वेद आदि शरीर रचना के कारण तथा इनकी न्यूनाधिक संख्या के कारण कैसी-कैसी अवस्था होती है ? ये रुढ़ कर्मकृत शारीरिक अवस्थाएँ जीवस्थान के द्वारा सूचित होती हैं। इन सब जीवों का दूसरा रूप है शरीर और आत्मा के विकास का मिश्रित रूप। इससे गति. इन्द्रिय, काय, योग, वेद आदि शारीरिक विकास-ह्रास की भिन्नताओं के अतिरिक्त कषाय, ज्ञान, संयप, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारक आदि की मार्गणाओं (सर्वेक्षणों) द्वारा मानसिक और आध्यात्मिक विकास-हास की भिन्नतासूचक अवस्थाओं का बोध होता है। इसलिए दूसरा रूप मार्गणास्थान है। और तीसरा रूप है-गुणस्थान, जिसके द्वारा आन्तरिक भावविशुद्धि के कारण राग-द्वेष, मिथ्यात्व, अज्ञान, मोह आदि का क्रमशः क्षय, उपशम या क्षयोपशम द्वारा आध्यात्मिक उन्क्रान्ति करने वाले जीवों की उत्तरोत्तर विकाससूचक १४ अवस्थाओं का बोध होता है। जीवस्थान में जीव क्या है ? किसका स्वामी है ? इसे किसने बनाया है? यह कहाँ रहता है? वह कितने काल तक रहता है ? तथा वह कितने भावों से युक्त होता है ? ये कुछ शंकाएँ प्रस्तुत करके समाधान दिया गया है। तथैव जीवस्थान, उसके १४ प्रकार, उनका स्वरूप भी बताया गया है। अगले अध्याय में पूर्वोक्त १४ जीवस्थानों में (१) गुणस्थान, (२) उपयोग, (३) योग, (४) लेश्या, (५) बन्ध, (६) उदय, (७) उदीरणा, और (८) सत्ता. इन आठ विषयों की प्ररूपणा करके उनका पथक-पथक स्वरूप-प्रतिपादन करने के साथ ही किस जीव में कौन-से और कितने गुणस्थान आदि पाये जाते हैं ? इसका सांगोपांग वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारकत्व, इन चौदह मार्गणाद्वारों द्वारा १४ प्रकार के संसारी जीवों का सर्वेक्षण किया गया है। तदन्तर अगले अध्याय में चौदह मार्गणाओं के ६२ उत्तरभेदों द्वारा जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्पबहुत्व इन छह का सर्वेक्षण किया गया है। इसके पश्चात् गुणस्थान की अपेक्षा से मार्गणाओं द्वारा बन्ध-स्वामित्व की प्ररूपणा की गई है। मोह से मोक्ष तक की चौदह मंजिलें - तेरहवें अध्याय में मोह से मोक्ष तक की १४ मंजिलों का-१४ गुणस्थान के रूप में स्वरूप, स्वभाव, कार्य और अधिकारी तथा गुण-प्राप्ति का सांगोपांग विवेचन किया गया है। इसी से सम्बन्धित-गाढ़वन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के १४ सोपानों के उद्देश्य, नाम, क्रम, अधिकारी, आन्तरिक शुद्धि-अशुद्धि का नाप-तौल, परस्पर सम्बन्ध आदि का विवरण भी प्रस्तुत किया गया है तथा अन्त में दर्शनमोह-मुक्तिपूर्वक सम्यक्त्व-प्राप्ति के लिए यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अतिवृत्तिकरण, इन तीनों की प्रक्रिया, कार्य और ग्रन्थि-भेद का वर्णन किया है। - गुणस्थान का स्वरूप बताकर आत्मा के गाढ़बन्धन से लेकर ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि आत्म-गुणों के सोपानों पर क्रमशः बढ़ते-बढ़ते सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने का गुणस्थान क्रमारोह है। इस सोपानक्रम को जान लेने पर जिज्ञासु को यह बोध हो जाता है कि आध्यात्मिक विकास की उत्तरोत्तर आरोहणावस्था किन-किन कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, संक्रमण आदि से होती है ? गुणस्थानक्रम को जान लेने पर उस-उस गुणस्थानवर्ती जीव की आन्तरिक शुद्धि-अशुद्धि का भी यथार्थ बोध हो जाता है। वस्तुतः . स्व-मावरमणता, आत्मोन्मुखता या आत्म-स्थिरता का तारतम्य दर्शन-शक्ति और चारित्र-शक्ति की शुद्धि के तारतम्य पर अवलम्बित है। दर्शन-शक्ति का विकास होने पर चारित्र-शक्ति का अनायास ही विकास होने लगता है। जैसे-जैसे उत्तरोत्तर चारित्र-शुद्धि होने लगती है, वैसे-वैसे आत्म-स्थिरता की मात्रा भी अधिकाधिक होने लगती है। जन्म-मरणादि दुःखों से पूर्ण मुक्ति के हेतु रत्नत्रयोपलब्धि के लिए ये १४ सोपान हैं। वस्तुतः पहले और चौदहवें गुणस्थान के बीच में जो दूसरे से लेकर तेरहवें पर्यन्त गुणस्थान हैं, वे कर्म और आत्मा के द्वन्द्वयुद्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली क्रमिक उपलब्धियों के नाम हैं। विविध दर्शनों में आत्म-विकास की क्रमिक अवस्थाएँ जैनदर्शन ने तीन अवस्थाओं में आत्मा का आध्यात्मिक विकास का क्रम बताया है-बहिरात्मदशा, अन्तरात्मदशा और परमात्मदशा। पहली दशा में मोहकर्म की दोनों शक्तियों से आत्मा अतीव आच्छन्न रहता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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