________________
* ६४ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
अथवा उदीरणा के अनुसार अनुभव (फलभोग) को विपाक कहते हैं। प्रज्ञापनासूत्रानुसार वे पूर्वबद्ध कर्म अपना विपाक (फलानुभव) कभी गति के निमित्त से, कभी स्थिति के निमित्त से, कभी भव के निमित्त से, कभी पुद्गल के निमित्त से और कभी पुद्गलों के परिणमन-विशेष के निमित्त से कराते हैं। इन्हीं पाँचों निमत्तों को कर्मवैज्ञानिकों ने क्षेत्र, काल, भव, पुद्गल और भाव (जीव के भाव या पुद्गल परिणमन) कहा है। साथ ही अष्टकर्म के विभिन्न विपाकों का भी दिग्दर्शन किया गया है। विपाक में उपादान के साथ निमित्त . का भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है और वह निमित्त भी स्वतः, परतः और उभयतः उदीर्ण होता है। इसी प्रकार परिस्थिति, वातावरण या विशिष्ट व्यक्ति आदि से भी विपाक को निमित्त मिल जाता है। कोई भी कर्म स्पृष्ट, बद्ध आदि १२ प्रकार की प्रक्रियाओं के कारण विपाकयोग्य बनता है।
विपाक के भी दो प्रकार हैं-हेतुविपाक और रसविपाक। हेतुविपाकी के ४ भेद इस प्रकार होते हैंक्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भवविपाकी और पुद्गलविपाकी। इन चतुर्विध हेतुविपाकी कर्मप्रकृतियों के भी क्रमशः ४, ४, ७८ और ३६; यों कुल मिलाकर १२२ भेद होते हैं। रसविपाकी कर्मप्रकृतियों के भी ४ प्रकार हैं-एकस्थानरसा, द्विस्थानरसा, त्रिस्थानरसा और चतुःस्थानरसा। कर्मविज्ञान की महान् देन
इस प्रकार विपाकाधारित कर्मप्रकृतियों को जानकर मुमुक्षुसाधक कर्म के विपाकोन्मुख होने (उदय में आने) से पहले ही अगर सावधान होकर उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण, उपशमन, उदीरण आदि परिणामों द्वारा बदल डालता है, अथवा उदय में आने पर भी समभाव से फल भोगकर अनुभाग (रस) और स्थिति में : परिवर्तन या उक्त कर्म का क्षय, क्षयोपशम या उपशम कर सकता है। कर्मविज्ञान की यह महान देन है। कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ
कर्मविज्ञान ने इन दो भ्रान्तियों का निराकरण कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ बताकर कर दिया है-(१) जैसा कर्म बाँधा है, वैसा ही भोगना पड़ेगा, और (२) संसार जीव के राग-द्वेषयुक्त भावों से कर्म
और कर्म से भाव, फिर कर्मबन्ध और भाव का चक्र अनन्त काल तक चलता रहेगा, ऐसी स्थिति में समस्त कर्मों से छुटकारा पाना नितान्त कठिन है। प्रथम भ्रान्ति के समाधान के लिए ही कर्मवन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाओं का विशद निरूपण किया गया है। वे दश अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-(१) बन्ध (बन्धनकरण), (२) उद्वर्तनाकरण, (३) अपवर्तनाकरण, (४) सत्ता, (५) उदय, (६) उदीरणा, (७) संक्रमण, (८) उपशमन, (९) निधत्ति या निधत्त, और (१०) निकाचना। कहीं-कहीं 'क्षय' को भी ग्यारहवीं अवस्था मानी है। अगर कर्म निकाचितरूप से नहीं बँधा हो तो, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, संक्रमण, उपशमन, क्षय, क्षयोपशम आदि के कारण सत्ता में पड़े हुए कर्मों में, जीव द्वारा परिवर्तन किया जा सकता है। दूसरी भ्रान्ति का समाधान यह है कि यदि व्यक्ति वाह्याभ्यन्तर तप, त्याग, प्रत्याख्यान, व्रताचरण, संयम-पालन, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्माचरण, परीषहजय, कषायोपशमन, समभावपूर्वक उपसर्ग-सहन करता है तो पूर्वोक्त कर्मबन्ध की श्रृंखला को तोड़ सकता है और अर्जुन मुनि, दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र आदि की तरह पूर्वबद्ध शुभ-अशुभ कर्मों को सर्वथा नष्ट करके सिद्ध-बद्ध-मुक्त भी हो सकता है। कर्म-सिद्धान्तानुसार भी प्रत्येक जीव समय-समय पर (आयकर्म को छोड़कर) सात कर्मों को बाँधता है, तो सकामनिर्जरा द्वारा न सही अकामनिर्जरा द्वारा भी उदय में आये हए कर्मों का फल भोगकर क्षय करता है। अतः यदि पर्वोक्त दस या ग्यारह अवस्थाओं को हृदयंगम करके अशुभ बन्ध से शुभ बन्ध की ओर और फिर शुभ वन्ध से कर्म के उपशम, क्षय, क्षयोपशम की ओर कदम बढ़ाये तो बन्ध से मोक्ष की ओर गति-प्रगति कर सकता है।
इसके पश्चात् कर्मविज्ञान ने बन्ध की अवस्था से लेकर निकाचनाकरण तक का स्वरूप, कार्य और स्व-पुरुषार्थ के परिणाम का दो अध्यायों में सांगोपांग निरूपण किया है। बद्ध जीवों के विविध अवस्था-सूचक स्थानत्रय
संसारी जीव अनन्त हैं। उनके तीन रूप हैं-(१) जीवस्थान, (२) मार्गणास्थान, और (३) गुणस्थान। उसका प्रथम रूप है-बाह्य शारीरिक। अर्थात् वह जीव १४ प्रकार के जीवों में से शरीर, इन्द्रिय, गति, काय,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org