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________________ कमविज्ञान : भाग ५ का सारांश कर्मबन्ध की विविध दशाओं का वर्णन कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या करने के बाद कर्मविज्ञान ने कर्मबन्ध के साथ-साथ प्रकृतिबन्ध आदि चार रूपों में उसका वर्गीकरण करके उनसे होने वाली विविध दशाओं का भी विशद निरूपण किया है। पिछले अध्याय में बन्ध के घाति-अघाति तथा पुण्य-पापरूपों का निरूपण किया जा चुका है। इस अध्याय में कर्मबन्ध की विविध दशाओं का वर्णन करने हेतु सर्वप्रथम आठ मूलकर्मप्रकृतियों तथा उत्तरकर्मप्रकृतियों के बन्धस्थानों का सांगोपांग निरूपण किया है। साथ ही भूयस्कारवन्ध, अल्पतरबन्ध, अवस्थितबन्ध और अवक्तव्यबन्ध का भी विस्तृत वर्णन किया है। इसी प्रकार पूर्व-अध्याय में वर्णित द्रव्यबन्ध और भावबन्ध के भी दो प्रकार बताएँ हैं-प्रयोगबन्ध और विनसाबन्ध। जीवन में प्रतिक्षण होने वाले प्रयोगबन्ध के भी दो रूप शास्त्रों में बताये हैं-शिथिलबन्धनबद्ध और गाढ़बन्धनबद्ध, जिसका विश्लेषण हम स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचितरूप से पिछले अध्याय में कर चुके हैं। इसी प्रकार भावबन्ध के भी मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध के भेद से दो प्रकारों का भी विशद निरूपण कर चुके हैं। इसी प्रकार विभिन्न भावों, परिणामों और लेश्याओं को लेकर भगवतीसूत्र में बन्ध के तीन प्रकार बताये गये हैं-जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध। वैदिक मनीषियों ने जिसे ऋणानुबन्ध कहा है, उस परम्परबन्ध का तथा रागबन्ध और द्वेषबन्ध का भी कर्मविज्ञान के इस खण्ड में विस्तार से निरूपण किया गया है। ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ...यह तो हुई विविध प्रकार के बन्धों की पहचान, किन्तु इन सब कर्मबन्धों के साथ-साथ उनके सहचारी सत्ता, उदय और उदीरणा का व्यापक चिन्तन भी कर्मविज्ञान ने इस खण्ड में प्रस्तुत किया है। इस सन्दर्भ में कर्मविज्ञान ने यह भी बताया है कि कर्म की १४८ उत्तरप्रकृतियों में से बन्ध और उदय के योग्य क्रमशः १२० और १२२ कर्मप्रकृतियों में से कितनी-कितनी और कौन-कौन-सी प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं ? कितनी और कौन-सी अध्रुवबन्धिनी हैं ? कितनी और कौन-सी प्रकृतियाँ ध्रुवोदया या अध्रुवोदया हैं ? तथा कितनी और कौन-सी प्रकृतियाँ ध्रुवसत्ताका या अध्रुवसत्ताका हैं ? साथ ही ध्रुवबन्धिनी-अध्रुवबन्धिनी, ध्रुवोदया-अध्रुवोदया एवं ध्रुवसत्ताका-अध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का स्वरूप तथा उनके कारण एवं वे प्रकृतियाँ ध्रुव-अध्रुव-बन्ध-उदय-सत्ता के रूप में उतनी-उतनी ही क्यों ? इसका भी विश्लेषण किया गया है। परावर्तमाना-अपरावर्तमाना प्रकृतियाँ : स्वरूप और कार्य ___ इसी प्रकार जो दूसरी कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय और बन्धोदय को रोककर अपना बन्ध, उदय और बन्धोदय करती हैं, उन परावर्तमाना तथा जो प्रकृतियाँ तेजीली और तीव्ररूप से आगे बढ़ने वाली परावर्तमाना कर्मप्रकृतियों को बन्ध, उदय और बंधोदय करने में रोकती नहीं हैं उन अपरावर्तमाना कर्मप्रकृतियों के स्वरूप का तथा घाति-अघाति कर्मप्रकृतियों में से कितनी परावर्तमाना हैं, कितनी अपरावर्तमाना हैं ? इनका समुचित विश्लेषण भी किया है। गति-स्थिति-भवपुद्गल-पुद्गल-परिणमन-निमित्त से विपाकाधारित कर्मप्रकृतियाँ इससे आगे यह भी बताया गया है कि जीव के द्वारा तीव्र-मन्द-कपाय भावों से किसी कार्य के निमित्त से पहले बाँधे हुए कर्मों का विपाक यानी कर्मफल का भोग (वेदन) विविध एवं विशिष्ट प्रकार का होता है। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म, रसोदय के अनुरूप जब फलभोग कराने के अभिमुख होते हैं, तब उस कर्म के उदय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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