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________________ * ६२ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * स्थितिबन्ध और अबाधाकाल किसी भी कर्म के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के बाद जब तक वह कर्म उदय में नहीं आता, तब तक उस जीव को बाधा नहीं पहुँचाता, तब तक के काल को कर्मविज्ञान 'अबाधाकाल' कहता है। यानी जब तक कृत (बद्ध) कर्म उदय या उदीरणा को प्राप्त होकर फल न दे, तब तक का काल अबाधाकाल कहलाता है। संक्षेप में कर्म की बाधा-पीड़ा उत्पन्न न करने वाला काल अबाधाकाल है। ऐसी स्थिति में उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के निर्धारित काल से उदयकाल तक के बीच में वह कर्म सत्ता में पड़ा रहता है। यदि कर्म निकाचितरूप से नहीं बँधा हो तो अबाधाकाल के दौरान उसमें शुभ का अशुभ रूप में, अशुभ का शुभ रूप में परिवर्तन या सजातीय में संक्रमण भी किया जा सकता है, क्योंकि शुभ-अशुभ कर्म का काल पकने पर ही वह कर्म उदय में आकर उसका फल भुगवाता है, पहले नहीं। अबाधाकाल का मापदण्ड कर्मविज्ञान के नियमानुसार अबाधाकाल का मापदण्ड इस प्रकार का है-यदि किसी कर्म की एक कोटाकोटि सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है तो उसमें १00 वर्ष का अबाधाकाल होता है। इस दृष्टि से ३० कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति का अबाधाकाल ३0 x १00 = ३000 वर्ष होता है। दो प्रकार की स्थिति : यहाँ कौन-सी मान्य ? कर्मविज्ञान में कर्मों की स्थिति भी दो प्रकार की बताई है-(१) कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा स्थिति, और (२) अनुभवयोग्या स्थिति। जब तक अमुक कर्म आत्मा के साथ रहता है, उसने काल का परिमाण कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा स्थिति कहलाती है, और उस कर्म की अबाधाकालरहित स्थिति अनुभवयोग्य स्थिति कहलाती है। स्थितिबन्ध के प्रकरण में कर्मरूपताऽवस्थानलक्षणा स्थिति ही बताई गई है। ... आयुष्यकर्म के अबाधाकाल में अबाधाकाल का पूर्वोक्त नियम लागू नहीं होता, वह सुनिश्चित नह होता। जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के स्वामी कौन-कौन ? इसके पश्चात् कर्मविज्ञान ने जघन्य और उत्कृष्ट अबाधाकाल का प्रमाण भी बताया। साथ ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के तथा जघन्य स्थितिबन्ध के स्वामी कौन-कौन और कैसे-कैसे होते हैं ? इसका विश्लेषण भी किया है। वस्तुतः स्थितिबन्ध में कषाय के साथ त्रिविधयोग का भी संयोग होता है। गौण रूप से अमुक काषायिक अध्यवसाय से युक्त मन-वचन-काया के योग से मुक्त होती है। अतः योगस्थानों के कारण स्थितिस्थानों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। इस प्रकार स्थितिबन्ध को विविध पहलुओं से समझाया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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