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* कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ६१ *
के मुख्य कारण हैं, एवं फलदान-शक्ति के नियामक हैं। जीव के द्वारा बाँधा हुआ शुभाशुभ कर्म रसबन्ध ही उत्तरकाल में (उदय में आने पर) उसे शुभाशुभ फल भुगवाता है। अतः बन्ध के उत्तरकाल में फलभोग कराने वाले वन्ध को अनुभागबन्ध-रसवन्ध कहते हैं। अर्थात् बन्ध को प्राप्त कर्मपुद्गलों में जिसके द्वारा विविध प्रकार के फल देने की शक्ति का निश्चय होता है उसे अनुभागबन्ध, अनुभाववन्ध या रसबन्ध कहा जाता है। रसबन्ध का मूल कारण कपाय है। वह जैसा भी तीव्र, मन्द या मध्यम होता है, कर्मबन्ध के उत्तरकाल में तदनुरूप पुण्य-पाप का फलभोग (विपाक) अनुभागबन्ध पर निर्भर है। शुभ और अशुभ इन दोनों प्रकार की कटु और मधुर कर्मप्रकृतियों के तीव्र और मन्द इन दोनों प्रकार के रस की, प्रत्येक की चार-चार अवस्थाएँ होती हैं-तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम और अत्यन्त तीव्र तथा मन्द, मन्दतर, मन्दतम और अत्यन्त मन्द; जिन्हें क्रमशः नीय और ईक्षुरस के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। यद्यपि तीव्र और मन्द रस के भी कषाययुक्त लेश्या के कारण असंख्य प्रकार हो सकते हैं, परन्तु उनका इन दोनों का चार-चार स्थानों में समावेश हो जाता है। अन्त में कर्मविज्ञान ने यह भी बताया है कि बन्धयोग्य कुल १२0 प्रकृतियों में पाप की ८२ तथा पुण्य की ४२ कर्मप्रकृतियों में से किस कर्मप्रकृति में कितने प्रकार का रसबन्ध होता है और क्यों? तथा संज्ञाद्वार से स्वामित्वद्वार तक रसबन्ध का विविध पहलुओं से विश्लेषण किया गया है। पंचसंग्रह (प्रा.) आदि ग्रन्थों में सादि-अनादि, ध्रुव-अध्रुव, जघन्य-अजघन्य, उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट, प्रशस्त-अप्रशस्त, देशघाति-सर्वघाति, प्रत्यय, विपाक और स्वामित्व: इन १५ द्वारों (प्रकारों) द्वारा अनुभाग (रस) बन्ध का सांगोपांग निरूपण किया गया है। . स्थितिबन्ध : स्वरूप, कार्य और परिणाम
स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध में अन्तर यह है कि स्थितिबन्ध और अनुभागवन्ध दोनों में कषाय प्रमुख कारण है। परन्तु स्थितिबन्ध में विवक्षित कर्म के सम्बन्ध जीव (आत्मा) के साथ कितने काल तक रहता है, इसका विचार किया जाता है, जबकि अनुभागबन्ध में विपाक (फलभोग) के समय वह कर्म जीव को कितनी तीव्र या मन्द मात्रा में फल देता है ? जीव के ज्ञानादि गुणों पर उसका क्या असर होता है? वह विघटन (फलभोग) के समय कितनी मात्रा में और किस प्रकार की सुखद-दुःखद क्रिया के अनुभव (वेदन) में जीव का सहायक होता है ? इसका विचार किया जाता है।
अतः कर्मविज्ञान की दृष्टि से अनुभाग (रस) बन्ध प्रधान है, वही सुख-दुःखरूप फलप्रदान (फलभोग) में निमित्त होता है, उसी के अनुसार बद्ध कर्म की स्थिति (कालसीमा) का निर्धारण होता है। इतना जरूर है कि अनुभागबन्ध के पश्चात् यदि स्थितिबन्ध न हो तो कर्मबन्ध का विपाकरूप कार्य पूर्ण नहीं होता। जैसे न्यायाधीश किसी अपराधी को उसके परिणामों के अनुसार सजा (दण्ड) तो सुना दे, किन्तु वह दण्ड क्रियान्वित न हो तो अपराध के फलस्वरूप दण्डप्रदान कार्य पूर्ण नहीं होता, इसी प्रकार अनुभागबन्ध द्वारा .बद्ध कर्म का तीव्र-मंद रसानुसार दण्ड या पुरस्कार के रूप में फल नियत करने पर भी यदि स्थितिवन्ध के · द्वारा उसका अमुक. कालविधि-पर्यन्त दण्ड या पुरस्कार क्रियान्वित न हो तो वह दण्ड या पुरस्काररूप फल
अपूर्ण माना जाता है। अतः अनुभागबन्ध के साथ स्थितिबन्ध का होना अनिवार्य माना गया है। - अतः स्थिति कहते हैं-जीव के अपने बद्ध आयुकर्म द्वारा प्राप्त आयुष्य के उदय से उस भव में अपने शरीर के साथ रहने को। स्पष्ट शब्दों में कहें तो अध्यवसाय से गृहीत कर्मदलिक की स्थिति के काल का नियमन स्थितिबन्ध है। बन्ध हो जाने पर जो कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ ठहरता (रहता) है. वह उसका स्थितिकाल है। बँधने वाले कर्मों में इस स्थितिकाल की मुद्दत पड़ने (निश्चित हो जाने) को स्थितबन्ध कहते हैं। बद्ध कर्म का जीव के साथ सम्बद्ध रहने के काल का निर्धारण करना स्थितिबन्ध का कार्य है। यानी जीव ने जैसा, जिस प्रकार से, जिस भाव से कर्म वाँधा है, उसे तदनुसार फलप्रदान करने की कालमर्यादा का निश्चय करना स्थितिबन्ध का कार्य है।
वह स्थिति दो प्रकार की बताई गई है-जघन्य (कम से कम) स्थिति और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) स्थिति। जैन-कर्मविज्ञान ने कर्म की आठों मूलप्रकृतियों तथा उत्तरप्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का स्पष्ट निरूपण किया है तथा संख्यात, असंख्यात, पल्योपम एवं सागरोपम कालमान का भी स्वरूप बताया है।
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