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________________ * ६० * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * है। अतः द्रव्यदृष्टि से कर्म एक ही प्रकार का होते हुए भी पर्यायों की अपेक्षा उसके मूल और उत्तरप्रकृतियों. के रूप में अनेक प्रकार के होने में कोई विरोध नहीं है। इस दृष्टि से ज्ञानावरणीय कर्म की मतिज्ञानावरणीयादि पाँच, दर्शनावरणीय कर्म की चक्षुदर्शनावरणीयादि नौ, वेदनीय कर्म की साता-असातावेदनीय के रूप में दो, मोहनीय कर्म की दर्शनमोहनीय-चारित्रमोहनीय के रूप में दो तथा दर्शनमोह की तीन और चारित्रमोह की कषाय-नोकषाय के रूप में २५, यों कुल अट्ठाईस आयुष्यकर्म की नरकायु आदि चार, नामकर्म की शुभाशुभ नामकर्म के रूप में दो और उनकी ९३ या १०३ गोत्रकर्म की उच्च-नीच गोत्र के रूप में दो, तथा अन्तराय कर्म की दानान्तरायादि के रूप में पाँच उत्तरप्रकृतियाँ बताकर कर्मविज्ञान ने उनका पथक-पृथक विशद स्वरूप. कारण एवं उनके विविध विपाक (कर्मफल) का भी विस्तार से निरूपण किया है। इतना ही नहीं, ज्ञानावरणीय कर्म के मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय आदि के उत्तरभेदों और उनके स्वरूप और स्वभावों का भी निरूपण किया है। विस्तृत रूप से उत्तरप्रकृतिबन्धको विभिन्न पहलुओं से समझाने के लिए कर्मविज्ञान के पाँच अध्यायों में इसका निरूपण किया है। घाति और अघाति कर्मप्रकृतियों का बन्ध आत्मा के चार निजी गुणों को क्षति पहुँचाने वाले, उन चार गुणों के अवरोधक. वाधक, विकारक, चार घातिकर्म हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय। इसी प्रकार आत्मा के चार निजी गुणों की घात न करके केवल उसके चार प्रतिजीवी गुणों-अव्याबाध सुख. अटल अवगाहना (शाश्वत स्थिरता), अमूर्तिकत्व और अगुरुलघुत्व का घात या ह्रास करते हैं. वे चार अघातिकर्म हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र। इसके अनन्तर कर्मविज्ञान ने घातिकर्मों के स्वभाव, प्रवलता, आत्म-गुणों को आवृत-कुण्ठित करने की शक्ति तथा सर्वघाती-देशघाती प्रकृतियों एवं चारों घातिकर्मों की उत्तरप्रकृतियों का विशद निरूपण किया है। अन्त में चार अघातिकर्म का लक्षण, स्वभाव, स्वरूप, कार्य और प्रभाव का निरूपण करके, घातिकर्म प्रकृतियों में शुभ-अशुभ कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण भी किया गया है। पाप और पुण्य कर्मप्रकृतियों का बन्ध हिंसादि पापकर्मों तथा क्रोधादि चार कषायों की तीव्रता के कारण पापकर्म का बन्ध होना सर्वमान्य है। विभिन्न प्रकार के विषयों, वस्तुओं, व्यक्तियों या घटनाओं के प्रति अप्रशस्त एवं तीव्र राग-द्वेष भी तथा अठारह प्रकार के पापस्थानक भी पापकर्मबन्ध के कारण हैं, जिनका दुःखदायक एवं प्रत्यक्षवत फल ८२ प्रकार से भोगा जाता है। पापकर्मबन्ध के विविध कटु परिणामों को जानने-अनुभव करने से उसके अस्तित्व का अनुमान हो जाता है। इसके पश्चात् पुण्यकर्मों की प्रकृतियों तथा उनके स्वरूप और बन्ध के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। शुभ परिणामों से निष्पन्न शुभ योगरूप आसव के उत्तर क्षण में प्रशस्तराग से पुण्यबन्ध होता है। जीवों के प्रति अनुकम्पा, शुभ मन-वचन-काया की क्रिया, सराग संयमादि योग, क्षमा शौच आदि के भाव सातावेदनीय पुण्यासव के कारण हैं। मन-वचन-काया की सरलता और अविसंवादिता, ये पुण्यासव हेतुक शुभ योग के कारण हैं। वस्तुतः पुण्य और पाप के बन्ध का निर्णय किसी वस्तु या क्रिया के आधार पर न होकर कर्ता के भावों के आधार पर होता है। अन्त में पुण्यबन्ध के नौ प्रमुख कारणात्मक प्रकार उनके फलस्वरूप शुभ योग से प्राप्त होने वाली सुखदायक ४२ पुण्य प्रकृतियों का वर्णन किया गया है। वस्तुतः पुण्यबन्ध रागादिकृत है, रत्नत्रयकृत नहीं है। इस तथ्य को भलीभाँति समझकर पुण्यबन्ध भी विषयेच्छा निदानमूलक न हो इसका ध्यान रखना आवश्यक है। रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम जीवन के सभी क्षेत्रों में सरसता-नीरसता प्रदान करने वाला अथवा संसारी जीवों का भाग्य-विधाता, समग्र जन्म-मरणस्वरूप संसार का संचालक कर्मरसाणु है। समग्र संसार की गतिविधि कर्मरसबन्ध पर निर्भर है। आत्मा के साथ कर्म का खास बन्ध रस (अनुभाग) बन्ध ही है। केवल योगबल निमित्तक प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध से काम नहीं चलता, संसार-वृद्धि के लिए कषाय-निमित्तक रसबन्ध और स्थितिबन्ध ही कर्मबन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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