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________________ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु * ५९ * विश्लेषण, तथा वह कर्म किस प्रकार का फल देगा? इसका निर्णय कर्म की प्रकृति (स्वभाव) से हो जाता है। विशेष धर्म, शील, प्रकृति, स्वभाव या गुण, शक्ति, लक्षण; ये सब प्रकृति के पर्यायवाची शब्द हैं। ज्ञानादि स्वभाव वाले विविध कर्मों का अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पृथक-पृथक स्कन्धरूप में बँध जाना प्रकृतिबन्ध है। कर्मविज्ञान बताता है कि बद्ध कर्मों की प्रकृति पर से मानव के व्यक्तित्त्व का ज्ञान भी हो सकता है। प्रकृतिबन्ध के द्वारा कर्मप्रकृति को जानने से मनुष्य अपने कर्म की (उत्तर) प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश में परिवर्तन कर सकता है। यानी कर्मप्रकृति को जानकर ही सत्ता में पड़े हुए (संचित) कर्म की निर्जरा, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम, उपशम या संक्रमण कर सकता है। आधुनिक भाषा में कहें तो जीवन की दिशा और स्वभाव में परिवर्तन हो सकता है। जो व्यक्ति कर्मों की प्रकृति, शक्ति, स्वभाव या उनके कारण को नहीं जानता, वह विविध दुःखों के बचाव के उपाय से अनभिज्ञ रहकर दोहरे व्यक्तित्व से संत्रस्त रहता है। आत्मा के मूल स्वभाव (ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति) की आवश्यक, सुषुप्तिकारक, मूळाकारक या विकारक, और शक्ति-प्रतिरोधक क्रमशः ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, ये चार घातिकर्म प्रकृतियाँ हैं। ये आत्मा के मूल स्वभाव को कैसे दबाती हैं, इसका विश्लेषण भी कर्मविज्ञान ने किया है। आत्मा के अव्याबाध आत्म-सुख, अक्षम स्थिति या शाश्वत, अरूपित्व और अगुरुलघुत्व, इन शेष चारों गुणों को बाधित करने का स्वभाव क्रमशः वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्रकर्म का है। अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आठों कर्मप्रकृतियों का नाम रखा गया है। एक ही कर्म होते हुए भी प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में आठ मूलप्रकृतियों में विभाजित हो जाता है। जैसे आहाररूप में ग्रहण की हुई एक ही वस्तु रस, रक्त आदि विविध धातु के रूप में परिणत हो जाती है, वैसे कम एक होते हुए भी स्वभावानुरूप विविध प्रकृतियों के रूप में परिणत हो जाता है। अदृश्य कर्म के कार्य-विशेष पर से उसकी प्रकृति का अनुमान किया जा सकता है। सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा कर्मों की प्रकृति के अनुसार आठ ही कर्मों में विभक्त किया है तथा उनका यह क्रम भी मनोविज्ञानसंगत है। मूलकर्मप्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण ___ जीव द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों-स्कन्धों-दलिकों या कार्मणवर्गणाओं के मिथ्यात्वादि के कारण आत्मा के साथ जुड़ते ही उनमें विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ तथा स्वभाव उत्पन्न होते हैं, उसी स्वभाव तथा शक्ति के निर्माण को प्रकृतिबन्ध कहा जाता है। उसके दो प्रकार हैं-मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । मूलप्रकृतिबन्ध में ८ प्रकार की मूलकर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। कर्मवर्गणा के स्कन्धों में विविध प्रकार के : फल प्रदान करने के स्वभाव की उत्पत्ति स्वतः होती है। कर्मविज्ञान ने स्थूलदृष्टि से रूपक द्वारा कर्मवर्गणा के स्कन्धों का ८ भागों में विभाजन होने का तथा उपमाओं द्वारा ८ कर्मों की प्रकृति का निरूपण भी किया है। आगे चलकर आठों ही कर्मों के लक्षण, कार्य तथा उनके प्रत्येक के बन्ध के मुख्य कारणों का तथा ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मबन्ध के दुष्परिणामों का प्राचीन-नवीन उदाहरणों सहित विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। सर्वकर्मों में प्रधान और प्रबल द्विविध मोहनीय कर्म तथा महामोहनीय कर्मबन्ध के कारणों, स्वभाव, लक्षण आदि का विशेष रूप से निरूपण किया है। इसी प्रकार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार अघातिकर्मों का बन्ध, श्लेष, स्वभाव, कारण और निवारण आदि के विषय में स्पष्टीकरण किया गया है। उत्तरप्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण . जिस प्रकार विभिन्न बादलों का जल विभिन्न पात्रों में गिरकर भिन्न-भिन्न रसों में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार अप्टमूलकर्मप्रकृतिरूपी मेघों में से ज्ञानावरणीय कर्म सामान्यतः एक होकर भी अपनी सजातीय श्रुतज्ञानावरणीय आदि विभिन्न रूपों में तथा दर्शनावरणीय भी एक होकर निद्रादि पाँच तथा चक्षुदर्शनावरणीय आदि चार मिलकर नौ रूपों में परिवर्तित हो जाता है। इसी प्रकार शेष ६ मूलकर्मप्रकृतियाँ अपनी-अपनी सजातीय उत्तरप्रकृतियों में परिणत हो जाती हैं। __ इसी तरह जैसे एक ही अग्नि में जलाने, पकाने. टण्ड मिटाने, भस्म करने, पानी आदि को गर्म करने इत्यादि विभिन्न प्रकार की शक्ति होती है, वैसे ही एक प्रकार के कर्मपुद्गल में सुख-दुःखादि रूप होने, श्रुतज्ञानादि को आवृत करने तथा क्रोधादि कषाय-नोकषाय आदि के रूप में मोहमूढ़ करने की शक्ति होती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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