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________________ * ५८ * कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * कारण कर्मपुद्गलों का आत्म- प्रदेशों से सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। ये नौ बन्ध भी दो-दो प्रकार के होते हैंसजातीय द्रव्यबन्ध और विजातीय द्रव्यबन्ध तथा सजातीय भावबन्ध और विजातीय भावबन्ध । पुद्गल का पुद्गल के साथ सजातीय द्रव्यबन्ध है, मगर पुद्गल का जीव के साथ विजातीय द्रव्यबन्ध है । जीव का जीव के साथ रागादि परिणामों से सजातीय भावबन्ध होता है। विजातीय (पुद्गल ) के साथ जीव का विजातीय भावबन्ध होता है। आगे कर्मविज्ञान ने इन दोनों का परिष्कृत स्वरूप तथा भावबन्ध की उत्पत्ति का कारण भी बताया है । द्रव्यबन्ध और भावबन्ध की प्रक्रिया भी आगे बताकर राग और द्वेष इन दोनों के स्निग्ध और रूक्ष होने से, इन दोनों के आत्म- प्रदेश के साथ मिलने से बन्ध होता है। वस्तुतः भावबन्ध का कारण साम्परायिक बन्ध है, ईर्यापथिक नहीं, क्योंकि सकषायभाव होने से साम्परायिक और अकषायभाव से ईर्यापथिक बन्ध होता है। इसी सन्दर्भ में भावबन्ध के मुख्य दो भेद बताए हैं- मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध । किन्तु बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का कथन द्रव्यकर्मबन्ध की अपेक्षा से है . कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप कर्मों के ग्रहण एवं बन्ध के होने के साथ ही आत्मा के योग और कषाय के अनुसार एकीभूत परिमाण, स्वभाव, काल और फलदानरूप कर्मबन्ध की चार अंगभूत अवस्थाएँ या व्यवस्थाएँ स्वतः निष्पन्न होती हैं। ये चार अवस्थाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं - ( १ ) प्रदेशबन्ध (२) प्रकृतिबन्ध, (३) रसबन्ध, और (४) स्थितिबन्ध । कर्मपुद्गलों के आने और उनके ग्रहण के समय उन अविभक्त कर्म-प्रदेशों का आत्म-प्रदेशों के साथ एकीभूत होने की अवस्था प्रदेशबन्ध है जो कर्मपरमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ बँधे हैं, उनके स्वभाव-निर्माण की व्यवस्था का नाम प्रकृतिबन्ध है । कर्मरूप से गृहीत पुद्गल - परमाणुओं के कर्मफल की रस-शक्ति निर्माण की अवस्था रसबन्ध है । गृहीत कर्मपरमाणुओं के टिकने के काल (स्थिति) सीमा की व्यवस्था को स्थितिबन्ध कहा जाता है। ये चार अवस्थाएँ कर्मबन्ध के साथ स्वतः निष्पन्न होती हैं। बन्ध के इन चार रूपों का आधार योग और कषाय है। प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगाश्रित हैं और स्थिति- अनुभागबन्ध कषायाश्रित हैं। चारों प्रकार के बन्ध की इन चारों अवस्थाओं को मोदकों का दृष्टान्त देकर समझाया गया है। साथ ही बन्ध के इन चारों अंगों की विशेषता का दिग्दर्शन कराया गया है। कर्मबन्ध होने के साथ ही ये चार प्रकार के अंगभूत बन्ध (चतुःश्रेणी बन्ध) अवश्यम्भावी हैं। प्रदेशबन्ध : स्वरूप, कार्य और कारण कर्मबन्ध के समय आत्मा के साथ कर्मवर्गणा के स्कन्धों ( कर्मदलिकों) का सम्बन्ध जितनी संख्या या परिमाण के साथ होता है, वह प्रदेशबन्ध कहलाता है। प्रदेशबन्ध में योगों (मन-वचन काया की प्रवृत्तियों) की चंचलता की न्यूनाधिकता ( तीव्रता - मन्दता) के अनुसार कर्म-प्रदेशों ( कर्म- पुद्गल परमाणुओं) की संख्या का बन्ध भी तीव्र - मन्द होता है। यह ध्यान रहे कि प्रदेशबन्ध में आत्म-प्रदेशों और कर्म-प्रदेशों का ही परस्पर बन्ध-सम्बन्ध होता है। जैनदर्शन आत्मा में असंख्यात प्रदेश मानता है। आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों का बन्ध यानी सम्बन्ध होने का नाम ही प्रदेशबन्ध है। इसे भगवतीसूत्र में भगवान महावीर और गौतम स्वामी के एक संवाद द्वारा सिद्ध किया गया है। किन्तु आत्म-प्रदेशों के साथ कर्मस्कन्धों का यह बन्ध रासायनिक नहीं है, केवल विशिष्ट संयोगमात्र होता है, जिसे प्रदेशबन्ध कहा जाता है। रासायनिक मिश्रण जब भी होता है, तब नवीन कर्मवर्गणाएँ प्राचीन कर्मों में स्निग्धता होने से उनके साथ बद्ध- श्लिष्ट हो जाती हैं। यह भी समझ लेना चाहिए कि योगबल (योग-स्थानकबल) के अनुसार ही कर्मों के न्यूनाधिक प्रदेशों का बन्ध होता है तथा गृहीत कर्मदलों के बन्ध के अनुसार कर्मों में प्रदेशों का विभाजन स्वतः हो जाता है। प्रकृतिबन्ध : मूलप्रकृतियाँ और स्वरूप जैसे प्राणियों के स्वभाव पर से उनका पृथक्करण या विभाजन किया जाता है, वैसे ही कर्मों के स्वभाव पर से उनका पृथक्करण या विभाजन किया जाता है; कर्म के स्वभाव का विश्लेषण भी आत्मा के साथ कर्म का बन्ध ( श्लेष ) होते ही स्वतः हो जाता है। कर्मबन्ध के समय ही उस कर्म के स्वभाव का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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