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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *५७ *
और योग, ये दो होंगे, उनमें मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद से जनित बन्ध नहीं होंगे तथा जिन (सर्वविरति . और देशविरति ) गुणस्थानों में मिथ्यात्व और अविरितजन्य बन्ध नहीं होंगे, उनमें प्रमाद, कपाय और योगजनित बन्ध होगा । चतुर्थ सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान में मिध्यात्व नहीं होगा, किन्तु अविरति आदि ४ कारण होंगे, जबकि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये कर्मबन्ध के पाँचों ही कारण होंगे। इसके पश्चात् इन पाँचों ही कारणों का स्वरूप, कार्य तथा ये कर्मबन्ध के हेतु कैसे-कैसे बनते हैं? किसका दायरा कितना न्यूनाधिक है, किस कर्मबन्ध हेतु के कितने प्रकार हैं? इसका सविस्तृत निरूपण कर्मविज्ञान ने किया है।
संक्षेपदृष्टि से बन्ध के दो कारण : कषाय और योग
इसके अनन्तर संक्षेपदृष्टि से बन्ध के योग और कषाय, इन दो कारणों में समावेश कैसे होता है ? इसका निरूपण करते हुए कर्मविज्ञान ने निरूपित किया है- योग के द्वारा कर्मों का आकर्षण और कषाय द्वारा उनका बन्ध-यानी कषाययुक्त सांसारिक जीव के योग द्वारा कर्मों का ग्रहण और कपाय द्वारा आश्लेषपूर्वक बन्ध होता है । परन्तु जहाँ कषाय ( राग-द्वेषादि) से युक्त वैभाविक प्रवृत्ति होगी, वहाँ चारों ( प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग ) रूप से कर्मबन्ध अवश्य होगा, किन्तु जहाँ सिर्फ योग से युक्त प्रवृत्ति होगी, वहाँ प्रकृति और प्रदेशबन्ध भी नाममात्र का होगा, स्थिति और अनुभागबन्ध तो होगा ही नहीं । स्पष्ट शब्दों में- योगों का कार्य केवल कर्म - परमाणुओं को आकर्षित करना है, किन्तु उन्हें बाँधे रखना, टिकाये रखना कषाय का कार्य है। कषायों के कारण भावबन्ध होता है, योग के कारण द्रव्यबन्ध | भावबन्ध न हो तो द्रव्यबन्ध कुछ नहीं कर सकता । कर्मरूप ईंधन लाने का काम योग का है, कषाय का काम है जलती हुई आग को भड़काने का। योग केवल द्रव्यकर्मरूप है, किन्तु कषाय या राग-द्वेषरूप भावकर्म के कारण न होंयानी कषायाग्नि शान्त या नष्ट है तो उस कर्म का टिकना असम्भव है। इसलिए कर्मबन्ध के चारों रूपों में कषाय और योग दो का होना अनिवार्य है, शेष कारणों का अन्तर्भाव इन दो में हो जाता है।
कर्मबन्ध की मुख्य चार दशाएँ
कषायों या राग-द्वेषादि की तीव्रता मन्दता के कारण बन्ध में तीव्रता- मन्दता होती है। जैन-कर्मविज्ञान 'कर्मबन्ध की तीव्रता और मन्दता को नापने के लिए चार मुख्य अवस्थाएँ निर्धारित की हैं - स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचित। इन्हें क्रमश: ढीला बन्ध, उससे जरा मजबूत बन्ध, इससे भी अधिक सुदृढ़ बन्ध और इन सबसे अत्यन्त पक्का और दृढ़ता बन्द, जो कभी खुल न सके। ये चारों एक साथ एक ही कर्म का बन्ध करते हैं। लेकिन चारों की काषायिक और राग-द्वेषयुक्त परिणामधारा में बहुत ही अन्तर है। चारों की काषायिक स्निग्धता की मन्दतर, मन्द, तीव्र और तीव्रतम अवस्था के आधार पर बन्ध का दारोमदार है। इसे पिसी हुई हल्दी से लिप्त वस्त्र के तथा सुइयों के ढेर के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। इसके पश्चात् स्पृष्ट, बद्ध, निधत्त और निकाचितरूप से बँधे हुए शुभ और अशुभ कर्मबन्ध के कार्य और फल का विशद विवेचन किया गया है। साथ ही निकाचित रूप में बँधे हुए कर्म शुभ या अशुभ कर्मों का फल भोगते समय सावधान रहें तो पूर्वबद्ध कर्मों की सकामनिर्जरा हो सकती है और नया कर्म नहीं बँधता । कर्मविज्ञान ने साधक को सावधान करने के लिए बताया है, कर्म बाँधते समय कषायों का रंग जितना हल्का होगा, उतना ही बन्ध शिथिल या शिथिलतर होगा।
कर्मबन्ध के विविध प्रकार और स्वरूप
वस्तु को केवल सहजभाव से उठाने या स्पर्श करने मात्र से बन्ध नहीं होता, बन्ध होता है-उसके साथ राग-द्वेष, आसक्ति घृणा या प्रियता अप्रियता का भाव होने से। मन-वचन-काया से कोई भी क्रिया करने मात्र से कर्म आते अवश्य हैं, परन्तु वे अबन्धक होते हैं, बशर्ते कि उस कर्म के साथ राग-द्वेष या कषाय न हो। कर्म का बन्ध होता है, उस क्रिया के साथ किये जाने वाले भाव, परिणाम या अध्यवसाय से। क्रिया दो प्रकार की होती है - हलन चलनरूप क्रिया और भावरूप क्रिया । दोनों के साथ राग-द्वेष या कषायरूपपरिणाम मिलने से वह कर्मबन्ध की कारण होती है। अतः बन्ध मुख्यतया दो प्रकार से होता है - द्रव्यबन्ध और भावबन्ध। राग-द्वेष, मोह आदि विकारी भावों से जो कर्मबन्ध होता है, वह भावबन्ध और उनके
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