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________________ * ५६ * कर्म सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * कर्मबन्ध का सर्वाधिक प्रबल कारण : मिथ्यात्व संसार में प्रकाशजीबी और अन्धकारजीवी प्राणियों की तरह सांसारिक मानव समुदाय में भी प्रकाश-पुंज को भी अन्धकार मानने वाले मनुष्यों की संख्या अधिक है, प्रकाश को प्रकाश मानने वालों की संख्या बहुत कम है। स्थूलदृष्टि से देखने पर अधिकांश मानव प्रकाश-प्रेमी प्रतीत होते हैं, परन्तु द्रव्यप्रकाश-प्रेमी हैं, जो अध्यात्मतत्त्वज्ञों की दृष्टि में यथार्थप्रकाश- भावप्रकाश नहीं हैं। यथार्थ भावप्रकाश सम्यक्त्व सूर्य का सम्यग्दर्शन- ज्ञान का प्रकाश होता है। अधिकांश मानवों के जीवन में इस भावप्रकाश के बदले मिध्यात्व, अज्ञान, अविधा या अविवेक का भावान्धकार ही व्याप्त दिखाई देता है। इसी भावान्धकार के फलस्वरूप राग-द्वेप, आसक्ति घृणा, कलह, क्लेश, हिंसादि पाप, अन्ध-स्वार्थ, अन्ध-विश्वास तथा देव-गुरु-धर्म-लोकादि मूढ़ताएँ, एकान्त पूर्वाग्रह, कदाग्रह भ्रान्तियाँ आदि अन्धकार दृष्टिगोचर हो रहे हैं। सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाए तो एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव मिथ्यादृष्टि हैं, नारक तिर्यञ्च, मनुष्य और देव; इन पंचेन्द्रिय जीवों में सम्यक्त्वी कम हैं. मिध्यात्वी अधिक हैं। जहाँ तक प्राणी मिथ्यात्वग्रस्त रहता है, वहाँ तक जो भी शास्त्रीयज्ञान, चारित्र - पालन या तपश्चरण किया जाता है, वह मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र या मिथ्यातप ही रहता है, जो संसारबर्द्धक होता है, संसारक्षयकारक नहीं। मिथ्यात्व घोरातिघोर अन्धकारक कूप में प्राणियों को डाले रखता है, उनका प्रायः आत्म-विकास रोक लेता है। इसके कारण आत्मा अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार कपाय तथा सम्यक्त्व - मिथ्यात्व - मिश्र - मोहनीय, इन ७ ज्वालाओं से युक्त होने से बन्ध और मोक्ष को जानता समझता नहीं, न ही बन्ध से मुक्त होने के उपायों के विषय में सोचता है। यही कारण है कि मिथ्यात्व को कर्मबन्ध का प्रबल और प्रथम कारण माना गया है। १८ प्रकार के पापस्थानों में सबसे बढ़कर पाप का या पापकर्मबन्ध का कारण मिथ्यात्व को माना है। आत्मा का सर्वाधिक कल्याणकारी महाशत्रु या महापाप मिथ्यात्व है । मिथ्यात्वी की कोई भी प्रवृत्ति मोक्षकारक नहीं होती। मिथ्यात्व का बन्धन टूटे विना अविरति आदि के बन्धन नहीं टूटते. वे नहीं छूटते । मिध्यात्व के प्रभाव से व्यक्ति संशय, पूर्वाग्रह, कदाग्रह आदि से घिरा रहता है। मिथ्यात्वी की दृष्टि, बुद्धि, धारणा, ज्ञान आदि सब विपरीत एवं मिथ्या होते हैं। मिथ्यात्व के ५, १० एवं २५ भेद और उनके लक्षण आदि भी कर्मविज्ञान ने स्पष्ट निरूपित किये हैं। कर्मबन्ध के बीज : राग और द्वेष रोग के कारणों को जाने बिना उसकी सही चिकित्सा नहीं हो सकती, इसी प्रकार कर्मबन्ध के मुख्य कारणों को जाने बिना कर्मरोग निवारण की यथार्थ चिकित्सा नहीं हो सकती । कर्मबन्ध को जानने मात्र से उससे मुक्ति नहीं हो सकती, कर्मबन्ध के कारणों को जानकर उन्हें तोड़ना आवश्यक है। आम्नव और बन्ध के मिथ्यात्वादि पाँच कारण समान होते हुए भी उनमें अन्तर यह है कि प्रथम क्षण में कर्मस्कन्धों का आगमन = आम्रव होता है। द्वितीय आदि क्षणों में कर्मवर्गणाओं की आत्म-प्रदेशों में अवस्थिति होती है, वह बन्ध है। दूसरा अन्तर यह है कि आस्रव में योग की प्रमुखता है, बन्ध में कषाय की। जिस प्रकार राज्यसभा में की अनुग्रह या निग्रह करने योग्य पुरुषों को प्रवेश कराने में राज्य कर्मचारी मुख्य होता है, उसी प्रकार योग प्रमुखता से कर्मों के आगमन (आस्रव) का द्वार खोल दिया जाता है, किन्तु जैसे प्रवेश होने के पश्चात् उन व्यक्तियों को सत्कृत या दण्डित करनें में राजाज्ञा मुख्य होती है, वैसे ही उन समागत कर्मों को आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट करके शुभ-अशुभ रूप में न्यूनाधिक रूप में बद्ध करने कषायादि की प्रमुखता से होता है। कर्मबन्ध के हेतुओं के सम्बन्ध में तीन परम्पराएँ कर्मविज्ञानवेत्ताओं ने प्रस्तुत की हैं - ( १ ) मिथ्यात्व. अविरति, कपाय और योग, (२) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग एवं (३) कषाय और योग । कर्मबन्ध के मुख्यतया पाँच कारणों के निर्देश के पीछे गुणस्थान क्रम के अनुसार आध्यात्मिक विकास में न्यूनाधिकता तथा कर्मप्रकृतियों के बन्ध की न्यूनाधिकता ही कारण है। यह क्रम सबसे ऊपर के गुणस्थान से सबसे नीचे के गुणस्थान तक क्रमशः समझना चाहिए। जैसे - जिस गुणस्थान में केवल 'योग' होगा, उसमें कषाय, प्रमाद, अविरति और मिथ्यात्व से जनित बन्ध नहीं होंगे, जिन गुणस्थानों में कषाय (अतिमन्द) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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