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* पारिभाषिक शब्द कोष * ५३१ *
सातावेदनीय-जिस कर्म के उदय से शारीरिक, मानसिक सुख का वेदन होता है। साधारणशरीर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से बहुत-से जीवों के उपभोग के हेतुरूप से साधारण (सबका एक ) शरीर होता है या प्राप्त होता है, उसे साधारणशरीर-नामकर्म कहते हैं।
साधु-समाधि - इ - ज्ञान - दर्शन -चारित्र में भलीभाँति अवस्थित होने का नाम समाधि है, साधुओं की समाधि को साधु-समाधि कहते हैं अथवा साधु यानी अच्छी समाधि को भी साधु-समाधि कहा जा सकता है।
सामायिक-सभी जीवों, पदार्थों पर कषायों का निरोध करना सर्वसावद्ययोगविरति, निरवद्ययोगप्रवृत्ति का नाम सामायिक है । जो राग-द्वेषरहित होकर सभी प्राणियों को अपने समान देखता है उसे सम कहा है। सम की आय का नाम समाय है, समाय ही सामायिक है। आर्त्त-रौद्रध्यान के त्यागपूर्वक राग-द्वेष से दूर रहना सामायिक है।
सामायिकचारित्र - शुभाशुभ विकल्पों के त्यागरूप समाधि सामायिकचारित्र है। सभी जीव केवलज्ञानस्वरूप हैं, इस प्रकार सभी जीवों के ऊपरी कलेवर (आवरण) को न देख कर उनमें शुद्ध आत्मा को देखना सामायिकचारित्र है।
साम्य - मोह और क्षोभ से विहीन आत्म-परिणाम ।
सामायिक संयत- जिस एक ही संयम में समस्त संयम का समावेश होता है, अर्थात् सामायिक का स्वीकार कर लेने पर अनुपम चार महाव्रतरूप चातुर्याम धर्म का मन-वचन-काय से स्पर्श हो जाता है तथा जो अनुपम होकर दुखबोध है, उस सामायिक-संयम का परिपालन करने वाला सामायिक संयत है।
साम्परायिक कर्म - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से ले कर सूक्ष्मसम्परायसंयत गुणस्थान तक कषाय के उदयवश उत्पन्न परिणामों के अनुसार योग द्वारा लाया गया कर्म ।
सावद्ययोग - अवद्य कहते हैं - हिंसादि पाप को । जो योग (मन-वचन-काया का व्यापार ) हिंसादि पापों से युक्त हो, वह सावद्ययोग कहलाता है।
सांकल्पिकी = संकल्पजा हिंसा - त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक आकुट्टि की बुद्धि से हिंसा करना सांकल्पिकी या संकल्पजा हिंसा है। यह अहिंसाणुव्रती श्रावक के लिए त्याज्य है।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष- इन्द्रियों और मन के आश्रय से होने वाला पदार्थ और इन्द्रिय-नोइन्द्रिय के साक्षात् सन्निकर्ष से होने वाला ज्ञान ।
सुभग- नामकर्म-जिसके उदय से अनुपकारी व्यक्ति भी सबके मन को प्रिय होता है, वह सुभग-नामकर्म है।
सुस्वर - नामकर्म-जिसके उदय से मनोज्ञ स्वर निष्पन्न होता है, वह सुस्वर - नामकर्म है। सूक्ष्म जीव - सूक्ष्म-नामकर्म के उदय से युक्त जीव।
सूक्ष्मसम्परायचारित्र - जिस चारित्र में अतिशय सूक्ष्य कषाय ( सम्पराय ) का अस्तित्व रहता है, वह सूक्ष्मसम्परायचारित्र है। इस चारित्र वाला दशम गुणस्थानवर्ती साधक होता है।
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