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________________ * ५३० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * संक्षेप रुचि (सम्यग्दर्शन)-जिसने मिथ्याभाव को ग्रहण नहीं किया है, किन्तु जिनप्रज्ञप्त आगम में निपुण नहीं है, अतएव संक्षेप में तत्त्व को सरलता से समझने की रुचि वाला है, वह संक्षेप रुचि है। संगविमुक्ति-मुनिधर्म के लिए अयोग्य, अकल्प्य वस्तुओं का त्याग कर देने पर भी उनके विषय में आसक्ति नहीं रखना संगविमुक्ति है। संग्रहनय-जो नय अपनी जाति के विरोध से रहित एकरूपता को प्राप्त करके अनेक भेदों से युक्त पर्यायों को सामान्यतः सर्वरूप में ग्रहण करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं। जैसे अनेक प्रकार के सामान्य, विशिष्ट घट होते हुए भी सब घटों को एक रूप में ग्रहण करने वाला संग्रहनय है। ____ संघ : धर्मतीर्थ : धर्मसंघ-साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध (धर्म) संघ का नाम संघ है। इसे धर्मतीर्थ या धर्मसंघ भी कहते हैं। संघअवर्णवाद-चतुर्विध संघ की निन्दा करना, संघ के किसी भी सदस्य का अवर्णवाद बोलना, पत्रों में छपवाना, पर्चेबाजी करना सबसे बड़ा परनिन्दा नामक पापस्थान है। संज्ञाक्षर-अक्षर की जो संस्थानाकृति है, उसे संज्ञाक्षर कहते हैं। संलेखना-जिस तपश्चरण में शरीर व कषाय आदि को कृश किया जाता है, वह संलेखना है। समाधिमरण का पूर्वरूप। ___ संवर-आस्रव का निरोध करना संवर है। संविग्न-मोक्ष-सुखाभिलाषी। संवृत (योनि)-जो जन्म-स्थानरूप प्रदेश भलीभाँति ढका हुआ होता है, जिसका देखा जाना कठिन होता है वह संवृतयोनि है। ____संवेग-संसार के जन्म-मरणादि दुःखों से निरन्तर भीरुता होना संवेग है। मोक्षाभिलाषा को भी संवेग कहते हैं। संशय-मिथ्यात्व-दोलायमान स्थिति, जिसमें दो पक्षों में से एक का भी निर्णय नहीं होता। जैसे–सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय मोक्ष के मार्ग हो सकते हैं या नहीं? ___ संसारानप्रेक्षा-(I) विभिन्न गतियों, योनियों और कुलों में जन्म-मरण-रोग-वृद्धावस्था आदि स्थितियों पर विचार करके संसार-परिभ्रमण का तथा उससे छूटने का विचार करना। (II) संसार में अनादिकाल से कर्मवश शरीर का ग्रहण, उसके सम्बन्ध से कर्म का ग्रहण, फिर पुनः शरीर, पुनः कर्म इत्यादि प्रकार से संसार-परम्परा का अनुप्रेक्षण करना। संस्थान-नाम-(I) जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की आकति निर्मित होती है। (II) जिस कर्म के उदय से बद्ध और संघात-प्राप्त पुद्गलों में आकार-विशेष का होना संस्थान-नामकर्म है। सातागौरव-भोजन-शयनादि की अत्यधिक प्रचुर सुख-सम्पन्नता पा कर गर्व करना या आसक्ति रखना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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