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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४६९ * और उपयोग करना निर्जरानुप्रेक्षा है। वाह्याभ्यन्तर तप, परीपह और उपसर्गों को समभाव से सहन करने का विचार करना भी निर्जरानुप्रेक्षा है। निर्जराभाव-तीव्रता या मन्दना को प्राप्त जीव-परिणामों के द्वारा असंख्यातगुणित श्रेणी के क्रम से जो कर्म आत्मा स पृथक् होते हैं, उनकी इस पृथक्ता का नाम निर्जराभाव है। अथवा कर्मों की इस पृथक्ता से जीव का जो परिणाम उत्पत्र होता है, उसे भी निर्जराभाव जानना चाहिए! निर्माण-नामकर्म-(I) जिस कर्म के उदय से अपनी-अपनी जाति के अनुसार अंग-उपांगों का निवेश (स्थापना या रचना) होता है उसे निर्माण-नामकर्म कहते हैं। (II) जो कर्म जाति-विशेषानुसार स्त्री-पुरुषादि के लिंग और आकार का नियामक है, वह भी निर्माण-नामकर्म है। निर्यापक-(I) दीक्षादाता गुरुं के अतिरिक्त ऐसा श्रमण जो देश और सर्वविरतिरूप दोनों ही प्रकार के व्रतों में भंग (छेद) होने पर व्रतारोपण करता है, वह। (II) अथवा जो कल्प्य-अकल्प्य आहार-पानी की परीक्षा में कुशल, संलेखना-संथारा के समय समाधि उत्पन्न कराने में-आराधक के चित्त को स्वस्थ व आत्म-समाधिस्थ रखने में कुशल होते हैं, तथा प्रायश्चित्त ग्रन्थों (छेदसूत्रों) के सरहस्य सूत्रार्थ ज्ञाता होते हैं, वे निर्यापक श्रमण होते हैं। . निलछिन कर्म-श्रावक के लिए वर्जित १५ वर्षादानों (खरकर्मों) में से एक कर्मादान। बैल, घोड़े आदि की नासिका को बींधना, गाय घोड़े आदि को गर्म लोह-शलाका से दागना (चिह्नित करना), वैल, घोड़े आदि को बधिया (खस्सी) करना, ऊँटों की पीठ का गालना इत्यादि कर्म (व्यवसाय या धन्धे) निल्छन कर्म हैं। यह कर्मादानरूप व्यवसाय श्रावक के लिए सर्वथा वर्ण्य है। निर्वाण-(I) परतंत्रता से निवृत्ति अथवा शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि को निर्वाण कहते हैं। (II) जहाँ राग-द्वेष से संतप्त प्राणी सर्वकर्ममुक्त तथा जन्म-मरण-शरीरादि से मुक्त हो कर परम शान्ति पाते हैं, उसका नाम निर्वाण है। इसे निवृत्ति भी कहते हैं। निर्वाण-मार्ग-सर्वकर्मक्षय से जो आत्यन्तिक सुख-शान्ति प्राप्त होती है, उसका नाम निर्वाण है, इस निर्वाण के सम्यग्दर्शनादि मार्ग को निर्वाण-मार्ग कहते हैं। निर्वाण-सुख-सांसारिक-सुख का अतिक्रमण करके जो एकान्तिक, आत्यन्तिक-अवि नश्वर (शाश्वत), अनुपम, नित्य और निरतिशय सुख (आनन्द) है, वह निर्वाण-सुख कहलाता है। . निर्विचिकित्सा-() युक्ति और आगम से संगत अर्थ के विषय में भी मतिविभ्रमवश फल के प्रति संदेह करना विचिकित्सा है। सम्यग्दृष्टि द्वारा इस प्रकार की विचिकित्सा न करना निर्विचिकित्सा है। (II) इस प्रकार जो निर्विचिकित्सारूप सम्यक्त्व के अंगयुक्त हो, वह निर्विचिकित्सक कहलाता है। (III) श्रमण-श्रमणियों के रत्नत्रय से पवित्र व्यक्तित्व को देख कर काया तो स्वभावतः अशुचिमय है, इस प्रकार उन त्यागीजनों के प्रति जुगुप्सा न करके गुणों के प्रति प्रीति रखना भी निर्विचिकित्सा = निर्जुगुप्सा है। यह सम्यक्त्व के ८ अंगों में से एक अंग है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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