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________________ * ४६८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * - निरनुकम्प-जो कठोर-हृदय दूसरे को पीड़ा से काँपता हुआ देख कर स्वयं कम्पित नहीं होता, ऐसा निष्ठुर-हृदय निरनुकम्प होता है। निरनुतापी-'मैंने अकृत्य को-नहीं करने योग्य कार्य को करके बुरा किया है', इस प्रकार से पश्चात्ताप नहीं करता, वह निरनुतापी होता है। निरंजन-जिसके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, जन्म-मरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मोह, स्थान, ध्यान, पुण्य, पाप, हर्ष, विषाद नहीं है तथा एक भी दोष नहीं है, ऐसे परम शुद्ध आत्म-स्वभाव या परमात्मभाव को निरंजन कहते हैं। - निराकार-जिसके शरीर न होने से हाथ, पैर, नाक, कान आदि अवयवों का आकार-विशेष नहीं होता, वह निराकार, सर्वकर्ममुक्त, सिद्ध-परमात्मा। ___ निराकार उपयोग-सामान्य-विषयक उपयोग या दर्शन निराकार-उपयोग या. अनाकारोपयोग है। निराकांक्ष-विभिन्न दर्शनों, मतों, विचारधाराओं, मान्यताओं या परम्पराओं के ग्रहणरूप आकांक्षा से रहित सम्यग्दृष्टि। निरालम्ब ध्यान-ध्यान की जिस अवस्था में न कोई धारणा हो, न किसी मंत्र या पद का उच्चारण या चिन्तन हो, न मन में किसी प्रकार का संकल्प या विकल्प हो, किन्तु अपने आत्मा को आत्मा के द्वारा रोक कर मुनि जो आत्माथ होता है, उस अवस्था को निरालम्ब ध्यान कहते हैं। निर्ग्रन्थ-वाह्यग्रन्थों (परिग्रह) तथा आभ्यन्तर (मिथ्यात्व आदि) ग्रन्थों से रहित हो, वह। जैनागमों में ५ कोटि के, ५ स्तर के निर्ग्रन्थ बताए गये हैं-पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक। इनमें चतुर्थ कोटि के निर्ग्रन्थ वे हैं, जो वीतराग-छद्मस्थ ईर्यापथ को-योगसंयम को प्राप्त हैं। अथवा लकड़ी द्वारा पानी में खींची गई रेखा ले समान जिनका कर्मोदय प्रगट नहीं है, तथा जो अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करने वाले हैं। स्लातक कोटि के निर्ग्रन्थ तो अरिहन्त, वीतराग, केवली हैं। निर्जरा-(I) पूर्वबद्ध कर्मों के प्रदेशपिण्ड का गलना-एक देश से क्षय होना-निर्जरा है। (II) परिपाक के वश अथवा उदीरणा द्वारा या तप-संयमादि द्वारा कर्मों का आत्मा से पृथक् होना निर्जरा है। वह दो प्रकार की है-सकाम और अकाम। सकामनिर्जरा सम्यग्दृष्टि के सम्यग्ज्ञानपूर्वक होती है, मिथ्यादृष्टि के नहीं। सकामनिर्जरा भी दो प्रकार की है-सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। इसके अतिरिक्त भी महानिर्जरा भी बताई गई है, जो श्रमणों और श्रमणोपासकों को तीन-तीन मनोरथों से तथा दशविध वैयावृत्य तप से, वाचनारूप स्वाध्याय आदि से होती है। सम्यग्दृष्टि से ले कर क्षीणमोह गुणस्थान तक के अधिकारियों के क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी प्रशस्त निर्जरा होती है। निर्जरानुप्रेक्षा-पूर्वोक्त प्रकार की निर्जराओं का एकाग्रतापूर्वक बार-बार शास्त्रानुसारचिन्तन-मनन करना, सकाम और अविपाक निर्जरा के उपायों और अवसरों का चिन्तन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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