________________
४७० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
निर्वेद - संसार, शरीर और इन्द्रियों के विषयभोगों के प्रति विरक्ति, वैराग्य य उपरति को निर्वेद कहते हैं ।
निर्वेदनी कथा - (I) संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथ निर्वेदनी कथा है। (II) इहलोक - परलोक में पापकर्मों के अशुभ फल का कथन करने वाली अथवा भोगों के प्रति विरक्ति उत्पन्न होने से पुण्यफल प्राप्तिकारिणी कथा निर्वेदनी कथा है।
निर्धारिम (पादपोपगमन संथारा ) - जो समाधिमरण वसति के एक देश में किया जाता है, वहाँ से उसके निर्जीव शरीर का निर्हरण (निःसारण) किया जाता है, इस कारण इस संथारे की निर्धारिम संज्ञा है ।
निवृत्ति (बादर) गुणस्थान - बादर कषाय से युक्त होते हुए अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रविष्ट जीवों के परिणाम परस्पर निवर्तमान होते हैं । अतः इस गुणस्थान को निवृत्ति (बादर) गुणस्थान कहते हैं ।
निश्चयचारित्र - औपाधिक रागादि विकल्पों से रहित स्वाभाविक ( अनाकुलतारूप) सुख के स्वाद से जो चित्त की स्थिरता होती है, इसका नाम वीतरागचारित्र या यथाख्यातचारित्र है।
निश्चय ज्ञान - समस्त शुभाशुभ विकल्पों संकल्पों से रहित परमानन्दरूप आत्मा के स्वरूप का वेदन करना ।
निश्चय तपश्चरणाचार- समस्त परद्रव्यों की इच्छाओं को रोक कर अनशनादि बारह प्रकार के तपों को तपते हुए आत्म-स्वरूप में तपन को निश्चय तपश्चरणाचार कहते हैं।
निश्चय दर्शनाचार - द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म आदि समस्त परद्रव्यों से भिन्न उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप अपनी शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार के श्रद्धानरूप निश्चय सम्यग्दर्शन में आचरण करना।
निश्चयनय-शुद्ध द्रव्य के निरूपण करने वाले नय को निश्चयनय या शुद्ध नय कहते हैं। निश्चय वीर्याचार - निश्चय दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार और तपाचार की रक्षा के लिए अपनी शक्ति को नहीं छिपाना निश्चय वीर्याचार है।
निषधा- परीषह - विजय-साधक द्वारा भयानक स्थानों (सूने घर, पर्वत, गुफा, गह्वा, एकान्त स्थान, अपरिचित स्थान आदि) में रहते हुए सूर्य - प्रकाश और इन्द्रियजन्य ज्ञान से परीक्षित प्रतिलेखित स्थान में नियमकृत्य करना, आसन में स्थित रहना, भयादिजनक शब्द सुनकर विचलित - भयभीत न होना, देव- मनुष्य - तिर्यंच-प्रकृति- कृत उपसर्ग सहते हुए मोक्षमार्ग में स्थिर रहना निषद्या - परीषह - विजय है।
निषेक-(I) एक साथ जितने कर्मपुद्गल जिस रूप में भोगे जाते हैं, उस रूप रचना का नाम निषेक है | (II) विवक्षित कर्म की स्थिति में से उसके अबाधाकाल को घटा देने पर शेष रही स्थिति -प्रमाण उसका निषेक ( रचना) प्रत्येक समय में उदय में आने वाला कर्मस्कन्ध होता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org