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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४६५ * नमस्कार-पुण्य-पुण्य-उपार्जन के नमै भेदों में से अन्तिम भेद। श्रद्धा-भक्ति, बहुमान एवं समर्पणपूर्वक नमस्कार करने, स्तुति-स्तवन करने, गुणगान करने से, अपने जीवन में उनके गुणों को धारण करने की तीव्र भावना करने से पुण्य-लाभ होता है। उत्कृष्टभाव-रसायन आने से निर्जरा भी हो सकती है। __नय-(I) विविध प्रकार से अर्थ (पदार्थ) विशेष को अपने-अपने अभिप्राय से ग्रहण कराने वाला नय कहलाता है। (II) ज्ञाता के अभिप्राय का युक्ति से अर्थपरिग्रहण कराना नय है। (III) अनन्तधर्मात्मक वस्तु के अनेक अंशों के प्रति विरोध के बिना एक अंश का विशेषरूप से ज्ञान कराने वाला नय है। (IV) प्रमाण से परिगृहीत अर्थ के एक देश से वस्तु का निश्चय करना नय है। (V) अनेक धर्मात्मक वस्तु के विषय में विरोध न करते हुए हेतु की मुख्यता से साध्य-विशेष की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग का नाम नय है। (VI) नय प्रापक, कारक, साधक, निर्वर्तक, निर्भासक. उपलम्भक और व्यंजक है। नयगति-नयप्रकार-नैगमादि नयों की गति या प्रयोग को नयगति कहते हैं। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत, ये ७ नय हैं। इनको दो प्रकारों में विभक्त कर सकते हैं-शब्दनय. और अर्थनय। इसी प्रकार व्यवहारनय और निश्चयनय तथा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय, यों दो-दो प्रकार भी वस्तु-तत्त्व को समझने के लिए राग के किये गये हैं। ___ नयाभास-(1) यह वहाँ होता है, जहाँ स्व-अभिप्रेत अंश के निरूपण करने के साथ इतर अंश का अपलाप किया जाता है। (II) पारस्परिक अपेक्षा से रहित नैगमादि नयों को नयाभास कहा जाता है। (III) प्रतिपक्ष का निराकरण करने वाले नय को नयाभास कहते हैं। __नरकगति-नामकर्म-जिस अशुभ नामकर्म के उदय से जीव को नारकभाव = नारकपर्याय प्राप्त होती है, उसे नरकगति-नामकर्म कहते हैं। नरकायु-जा कर्म नारकों को नरक में उद्विग्न होने पर भी नारकपर्याय में धारण कले रखता है-वहाँ रोक कर रखता है, उसे नरकायु कहते हैं। इसे 'नारकायु' भी नरदेव-शास्त्रानुसार जो चातुरन्त चक्री चक्ररत्न इत्यादि वैभव से युक्त सम्यक्त्वयुक्त - नरश्रेष्ठों को नरदेव कहा गया है। फर्म-जो ग्व-स्वकर्मानुसार जीव को नमाता-नम्रीभूत करता है, वह नामकर्म है, । प्राणियों को गति, जाति आदि के अभिमुख करता है-प्राप्त कराता है, वह सभा में है। इसके मुख्य दो प्रकार हैं-शुभ नामकर्म और अशुभ नामकर्म। नाम-निक्षेप-नाम के अनुरूप वन्तु में वैसा गुण न होने पर व्यवहार के लिए पुरुष के प्रयत्न से नामकरण किया जाये. रसे नाम-निक्षेप कहते हैं। - नास्तिक = मिथ्यादृष्टि-(I) जो यथार्थ देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा-प्रतीति, रुचि नहीं रखता, उन्हें हां मानता, वह नास्तिक है। (II) जो आत्मा, परमात्मा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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