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________________ * ४६६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * पूर्वजन्म- पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, नौ तत्त्व, कर्म-कर्मफल- कर्मबन्ध कर्ममुक्ति आदि को नहीं मानता, वह भी नास्तिक या मिथ्यादृष्टि, मिथ्यात्वी होता है। निकाय - (I) नित्य काय या अधिक काय का नाम निकाय है । पृथ्वीकाय आदि पाँच स्थावर हैं, वे अपने जातिगत (एकेन्द्रिय जातिगत) अन्य भेदों के प्रक्षेप की अपेक्षा से निकाय कहलाते हैं। जैसे - षड्जीव - निकाय । अपने भेदों की अपेक्षा से वे काय कहलाते हैं। जैसे- पृथ्वीकाय, अप्काय आदि । निक्षिप्त-दोष-सचित्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति आदि पर रखा हुआ आहार देने लगे, उस समय ले ले तो निक्षिप्त-दोष लगता है। निक्षेप - (I) लक्षण और विधान (प्रकार) पूर्वक विस्तार से जीवादि तत्त्वों को जानने के लिए जो न्यास - नाम, स्थापना, द्रव्य और भावादि के भेद से विरचना या निक्षेप किया जाये, उसे निक्षेप कहते हैं। (II) द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नयों का विषयभूत जो तत्त्वार्थ के ज्ञान का हेतु है, वह निक्षेप है। निक्षेप का प्रयोजन है, वस्तु की व्याख्या यानी विश्लेषण करके यथार्थ - अयथार्थ का संशय दूर करना । निगोद-वनस्पतिकाय का एक भेद । जो अनन्त जीवों को नियत गो = भूमि, क्षेत्र या आश्रय देता है, ऐसे जीव के प्रकार को निगोद कहते हैं। निगोद जीव- जो अनन्तानन्त जीवों का साधारणरूप से एक ही शरीर हो, अथवा जो निगोदभाव से या निगोदों में जीते हैं, वे निगोद जीव कहलाते हैं। जिन जीवों का शरीर निगोद होता है, वे भी निगोद शरीर कहलाते हैं। निग्रह-योगों (मन-वचन-काया के व्यापारों) की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना - उन पर नियंत्रण करना निग्रह या गुप्ति है। सम्यक् प्रकार से योगों के निग्रह को गुप्ति भी कहते हैं। नित्य - (I) तद्भाव = वस्तु स्वभाव का विनाश न होना नित्य है | (II) जो वस्तु जिस रूप में पूर्व में देखी गई है, उस रूप का सदा के लिए, उस रूप का सदा बना रहना, यही उस वस्तु की नित्यता है। नित्यपिण्ड (आहारदोष) - मैं प्रतिदिन इतना आहार दूँगा, आप प्रतिदिन गोचरी के लिए आइए, इस प्रकार कहने पर वचनबद्ध हो कर, निमंत्रित होकर, उसी गृहस्थ के घर जाना और आहार ग्रहण करना नित्यपिण्ड नामक आहारदोष है। निंदा - (I) जिस वेदना में अत्यन्त या निश्चितरूप से चित्त दिया जाता है, वह निदा वेदना कहलाती है। (II) सामान्य रूप से चित्त वाली यानी सम्यक् विवेक वाली वेदना को शास्त्रीय भाषा में 'निदा' कहते हैं। निदान - (I) विषय - सुख की अभिलाषारूप भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके द्वारा नियमित चित्त दिया जाये, वह निदान ( नियाणा ) है | (II) अपने तप, ब्रह्मचर्य, चारित्र, संयम आदि के फल के बदले अमुक पद, सुख, वस्तु आदि की आगामी भव में प्राप्ति की कामना करना निदान है। इस प्रकार की आकांक्षा से तप, चारित्र आदि खण्डित = भंग हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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