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________________ * ४६४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * ध्रुवोदया-जिन कर्मप्रकृतियों का उदय उदित रहने के काल तक नष्ट नहीं होता, उन्हे ध्रुवोदया कर्मप्रकृतियाँ कहते हैं। इसके विपरीत कतिपय प्रकृतियाँ अध्रुवोदया होती हैं। ध्रुवसत्ताकी - सम्यक्त्व आदि उत्तरगुणों की प्राप्ति से पूर्व मिथ्यात्वदशा में जो प्रकृतियाँ सदैव सत्ता में विद्यमान रहती हैं, वे । जैसे- अनादि मिध्यादृष्टि जीव | इसके विपरीत अध्रुवसत्ताकी प्रकृतियाँ हैं, जिनके लिए यह विषय नहीं है कि विच्छेदकाल तक प्रतिसम सत्ता में ही हो। अतः अध्रुवसत्ताकी कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रह भी सकती हैं, नहीं भी रह सकतीं। ध्रौव्य-अनादि पारिणामिक स्वभाव की अपेक्षा व्यय और उत्पाद संभव न होने से द्रव्य की स्थिरता का नाम ध्रौव्य है। (न) नपुंसक-चारित्रमोह के विकल्परूप नोकपाय के भेदभूत नपुंसक वेद और अशुभ नामकर्म के उदय से जो न स्त्री होते हैं, न पुरुष, वे नपुंसक कहे जाते हैं। नपुंसकवेद-(I) जिस (वेद-नोकषाय कर्म) के उदय से जीव नपुंसक के भावों को प्राप्त होता है, उसे नपुंसकवेद (नौ नोकषाय का एक प्रकार ) जानना चाहिए। (ii) जिसके उदय से स्त्री और पुरुष के ऊपर नगर के महादाह के समान रागभाव उत्पन्न होता है, उसे नपुंसकवेद जानना चाहिए। . नभ = आकाशास्तिकाय-जो समस्त द्रव्यों का भाजन (आधार) है, तथा जिसका स्वभाव अवकाश देना है, उसे नभ (आकाश) या आकाशास्तिकाय कहते हैं। नमस्कार - अरहन्त आदि के गुणों में अनुराग रखने वाला जो जीव मन से भक्तिभाव, वचन से स्तुति और काया से पंचांग नमा कर प्रणाम क्रिया करता है, उसे नमस्कार कहते हैं। नमस्कारमंत्र-नवकारमंत्र-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, इन पंचपरमेष्ठी भगवन्तों के स्वरूप, गुण और उनकी आराधना की विधि जान कर उसका मनन करने, जप एवं स्मरण करने से सब प्रकार से त्राण रक्षण (आत्मा एवं शरीरादि की सुरक्षा) होती है, इस कारण इस महामंत्र को या नवकार या नमस्कार महामंत्र कहते हैं। == नवपद-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, वे नौ पद प्रत्येक अध्यात्मपिपासु आत्म-विकासेच्छुक भक्त के लिए आराध्य हैं, ध्येय हैं, इनके जाय-मंत्र का जाप करने योग्य है। नवपद-मंत्र-नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं, नमो नाणस्स, नमो दंसणस्स, नमो चरित्तरस, नमो तवस्स, नवपदों के नौ नमस्कारमंत्र हैं। इसकी आराधना-साधना विधिपूर्वक करने से पुण्य तथा संवर- निर्जरारूप धर्म का लाभ होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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