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________________ • ४६० * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * दुष्प्रयुक्त-कायक्रिया-प्रमत्तसंयत के द्वारा अनेक कर्त्तव्यों, कार्यों, चर्याओं, या प्रवृत्तियों में योगों की दुष्प्रवृत्ति होना दुष्प्रयुक्त-कायक्रिया है। दुःख-अन्तरंग में असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर वाह्य सजीव-निर्जीव पदार्थों का निमित्त या संयोग मिलने पर चित्त में परिताप (पीड़ा) का अनुभव (वेदन) होना दुःख है। एक दुःख समाप्त हुआ नहीं कि दूसरा दुःख उपस्थित हो जाता है, इस प्रकार पर-वस्तु के संयोग (आसक्तिपूर्वक संयोग) से दुःख-परम्परा बढ़ती है। दुषम-दुषमा-अवसर्पिणी काल का छठा आरा, जो इक्कीस हजार वर्ष का है। दुषमा-इसी कालचक्र का पंचम आरा, जो इक्कीस हजार वर्ष का है। . . . दुषम-सुषमा-४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण काल इस आरे का होता है। ___ दुःस्वर-नाम-जिस कर्म के उदय से सुस्वर के विपरीत गधे या ऊँट के समान अमनोज्ञ स्वर उत्पन्न होता हो, वह। दुर्भग-नाम-जिस कर्म के उदय से जीव सौभाग्य के विपरीत दुर्भाग्य से ग्रस्त रहे; वहाँ दुर्भग-नामकर्म है। दृष्टिराग-३६३ प्रवादियों का अपने-अपने दर्शन-विषयक जो राग होता है, एकान्तरूप से हठाग्रह होता है, उसे दृष्टिराग कहते हैं।' दृष्टिवाद-जिसमें क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४. विनयवादियों के ३२, अज्ञानवादियों के ६७; यों कुल ३६३ दृष्टियों की प्ररूपणा और उनका निग्रह किया जाए, उसे दृष्टिवाद कहते हैं। ___ दृष्टिमूढ़-मिथ्यात्व के कारण जिसका ज्ञान आवृत हो जाता है, फलतः जानता तो है, परन्तु सम्यक् नहीं जान पाता, बहुत-सा ज्ञान लुप्त भी हो जाता है, वह दृष्टिमूढ़ जीव है। द्रव्यार्थिकनय-(I) जिसका प्रयोजन द्रव्य है, अर्थात् जो द्रव्य (सामान्य) को विषय करता है, वह। (II) जो विविध पर्यायों को भूतकाल में प्राप्त कर चुका है, वर्तमान में प्राप्त करता है और भविष्य में प्राप्त करेगा, उसे द्रव्य कहते हैं। ऐसे द्रव्य को विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। द्रव्यानव-(I) आत्मा में समवाय को प्राप्त हुए जो कर्म-पुद्गल रागादि परिणामरूप से अभी उदय को प्राप्त नहीं हुए हैं, उन्हें द्रव्यानव कहते हैं। (II) ज्ञानावरणीयादि कर्मों के योग्य पुद्गलों के आगमन को द्रव्यानव कहते हैं। द्रव्येन्द्रिय-पुद्गलों के द्वारा जो बाहरी आकार की रचना (निर्वृत्ति) होती है. उसे तथा कदम्ब-पुष्प आदि के आकार से युक्त उपकरण (ज्ञान-प्राप्ति के साधन) को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। द्विचरम-जो जीव विजयादि विमानों से च्युत होते हुए दो बार मनुष्य-जन्म ले कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं, वे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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