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* पारिभाषिक शब्द - कोष * ४५९ *
दंश-मशक-परीषह-जय-डांस, मच्छर, पिस्सू, खटमल, मधुमक्खी, कीट, चींटी, बिच्छू आदि के द्वारा की हुई बाधा को बिना किसी प्रतीकार के सहते हुए उनको मन-वचन-काया से पीड़ा न पहुँचाना दंशमशक-परीषह-जय है।
दान - स्व-परानुग्रह बुद्धि से स्वद्रव्य-समूह का पात्र में त्याग (विसर्जन) करना दान है। दाता-भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, संतोष, विज्ञान (विवेक), अलोभ और क्षमा, इन सात गुणों से युक्त, नवधाभक्ति से समन्वित दान देने वाला व्यक्ति (यथार्थ) दाता है।
दातृविशेष (विशिष्ट दाता) - पात्र के विषय में असूयारहित, क्षमाशील, प्रसन्नचित्त, त्याग में अखिन्न, आदरबुद्धि, दान देने की तीव्रता, वर्तमानकालीन तथा भूतकालीन दाता के प्रति अनुरागी, कर्मक्षयदृष्टि, सांसारिक फलाकांक्षा से रहित, निष्कपट और निर्निदान दाता, विशिष्ट दाता माना गया है।
दानान्तराय - (I) जिस कर्म के उदय से योग्य ( दातव्य) वस्तु तथा पात्र - विशेष के उपस्थित रहने पर भी तथा दान के फल को जानते हुए भी देने का उत्साह नहीं होता, उसे दानान्तराय कहते हैं | (II) जो कर्म दान देने में विघ्न करता है, वह दानान्तराय है।
दान्त - इन्द्रिय और मन को वश में रखने वाला पुरुष ।
दाक्षिण्य - गम्भीरता और धीरता को धारण करके जो दूसरों के कार्यों में मात्सर्यरहित हो कर निर्मल अभिप्राय से उत्तम उदार प्रयत्न किया जाता है, उसे दाक्षिण्य गुण कहते हैं।
दीपक-सम्यक्त्व-जो स्वयं मिथ्यादृष्टि होते हुए भी धर्मकथा आदि के द्वारा दूसरों के सम्यक्त्व को दीप्त प्रकाशित करता है, उसे कारण में कार्य के उपचार से दीपक- सम्यक्त्व कहा जाता है।
दुरभिगन्ध - नाम - जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल दुर्गन्धयुक्त होते हैं, उसे दुरभिगन्ध या दुर्गन्ध-नामकर्म कहते हैं।
दुर्ध्यान - जो ध्यान विकृत है, अनिष्ट है, अभीष्ट नहीं है, ऐसे ध्यान को दुर्ध्यान कहते हैं। इसके दो प्रकार हैं - आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान। इसे अपध्यान या अशुभ ध्यान भी कहते हैं।
दुष्पक्वाहार-ठीक से न पके, अधपके या अधिक पक कर जले हुए आहार का नाम दुष्पक्वाहार है। यह श्रावक के सातवें उपभोग - परिभोग- परिमाणव्रत का अतिचार है। दुष्प्रतिलेखन दुष्प्रत्युपेक्षण - भलीभाँति देखे और पूंजे बिना उक्त भूमि पर गमनागमन, शयन आदि करना, अपना शय्या - संस्तर बिछाना, मल-मूत्रादि का परिष्ठापन करना, जिससे जीवों का विघात हो, उन्हें पीड़ा पहुँचे इसका नाम दुष्प्रतिलेखन है तथा व्याकुलचित्त या व्यग्रचित्त से देखी गई भूमि पर गमनागमन - शय्यादि करना दुष्प्रत्युप्रेक्षण है। इसे 'दुष्प्रतिलेखाऽसंयम' भी कहते हैं।
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दुष्प्रमार्जन - भलीभाँति देखकर प्रमार्जन न करते हुए किसी वस्तु को उठाना, रखना लेना दुष्प्रमार्जन दोष है। ये तीनों ही पौषधोपवासव्रत के अतिचार हैं।
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