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________________ * ४५८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * ___ दर्शन (उपयोग)-(I) वस्तु का सामान्य ग्रहण करना दर्शन है। (II) अनाकार बोर दर्शन है। (III) दर्शनावरणीय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से जो निराकार आलोचन मात्र आविर्भूत होता है, उसका नाम दर्शन है। (IV) निश्चय से आत्म-विषयक उपयोग दर्शन है। दर्शनमोह = दर्शनमोहनीय-(I) जो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप दर्शन को मोहित कर देता है वह दर्शनमोह है। (II) दर्शनमोह का उदय होने पर निश्चय से शुद्ध आत्मा के प्रति रुचि र रहित तथा व्यवहार रत्नत्रय एवं तत्त्वार्थ के प्रति रुचि से रहित जो विपरीताभिनिवेशका परिणाम होता है, वह दर्शनमोह कहलाता है। इसके तीन प्रकार हैं-सम्यक्त्वमोहनीय मिथ्यात्वमोहनीय एवं मिश्रमोहनीय। दर्शनविनय-(I) चूंकि आगमों में कहा है-आप्त (जिन) प्ररूपित पदार्थों का स्वरूप अन्यथा हो नहीं सकता। अतएव निःशंकित आदि सम्यक्त्व के आठ अंगों सहित तत्त्वार्य का श्रद्धान करना दर्शनविनय है। (II) तत्त्वार्थश्रद्धानरूप दर्शन के प्रति तथा निश्चय-व्यवहार-सम्यक्त्व के प्रति निःशंकितादि दोषरहित रहना, या स्व-स्वरूपशुद्ध-बुद्ध-एकमात्र आत्मा में श्रद्धा, रुचि रखना दर्शनविनय है। दर्शनविशुद्धि-(I) दर्शन यानी सम्यग्दर्शन, उसकी विशुद्धता अर्थात् तीन प्रकार की मूढ़ता, अष्टमद तथा अष्टमल से रहित सम्यग्दर्शन का भाव दर्शनविशुद्धता है। (II) जिनेन्द्रदेवप्ररूपित निर्ग्रन्थतारूप मोक्षमार्ग के विषय में रुचि होना दर्शनविशुद्धि है। __दर्शनसमाधि-धर्मध्यानादि के आश्रय से जीव का मोक्ष या मोक्षमार्ग में अपने आपको स्थित कर देना समाधि है। जिसका अन्तःकरण जिनागमरूप दर्शन में समाधिस्थ हो चुका है, वह दर्शनसमाधि से युक्त है। ___ दर्शनाचार-निःशंकिता, निष्कांक्षितता, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना, इन आठ अंगों से युक्त सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) का पालन करना दर्शनाचार है। दर्शनावरणीय = दर्शनावरण-(I) दर्शनगुण के आवरक कर्म को दर्शनावरण कहते हैं। (II) जो कर्म पदार्थ के सामान्य ज्ञान या अवलोकन में-दर्शन में बाधक हो, वह दर्शनावरणीय कर्म है। इसके नौ भेद हैं। दर्शनार्य-सम्यग्दर्शन से सम्पन्न आर्य (हेय धर्मों से निवृत्त, अथवा गुणीजनों द्वा आदरणीय, सेव्य) दर्शनार्य कहलाते हैं। दर्शनार्य--आज्ञारुचि, मार्गरुचि, उपदेशरुचि आर्टि के भेद से दस प्रकार के हैं। दर्शनोपयोग–अन्तरंग = आत्म-विषयक-उपयोग का नाम दर्शनोपयोग है। दर्शनमार्गणा-वस्तु के सामान्य अंश को जानने-देखने वाले चेतना-शक्ति के उपयोग या व्यापार के विषय के निमित्त से जीवों की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक भिन्नताओं का सर्वेक्षण करना दर्शनमार्गणा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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