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________________ * पारिभाषिक शब्द कोष * ४५७ * त्रस - नाम -1 - जिस नामकर्म के उदय से द्वीन्द्रिय आदि में जन्म होता हैं, स्वतः चलन- स्पंदन होता है, जो कर्म त्रसभाव सपयाय) को उत्पन्न करने वाला है, वह त्रस- नामकर्म है। ( त्रीन्द्रिय जीव-स्पर्शन, रसना और प्राण, इन त्रीन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा शेष इन्द्रियावरण और नोइन्द्रियावरण कर्म का उदय होने पर जो जीव स्पर्श, रस और गन्ध को जानते हैं, वे त्रीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। त्रीन्द्रिय जाति - नाम - जिस कर्म के उदय से जीवों की त्रीन्द्रिय अवस्था से समानता होती है, उसे त्रीन्द्रिय जाति-नामकर्म कहते हैं। त्रिस्थान-बन्धक-असातावेदनीय के अनुभाग को श्रेणी के आकार से स्थापित कर चार भाग करने पर प्रथम स्थान नीम के समान, दूसरा कांजीर के समान, तीसरा विष के समान और चौथा हलाहल के समान है। इन चार स्थानों में से तीन स्थान जिस अनुभाग-बन्ध में होते हैं, वह त्रिस्थान ( तीन ठाणिया) बन्ध और उसके बन्धक को त्रिस्थान - बन्धक कहते हैं । (द) दन्तवाणिज्य-(I) हाथीदाँत या दूसरे पशुओं के दाँत का व्यवसाय करना। (II) दंत, केश, नख, खाल, हड्डी, रोम आदि अवयवों का व्यवसाय करना भी दन्तवाणिज्य है। • दम - (I) इष्ट-अनिष्ट इन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-द्वेष का त्याग करना दम (संयम ) है। (II) इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना भी दम है। इसे दमन भी कहते हैं। आत्म-दमन श्रेष्ठ है, पर दमन नहीं। दया-प्राणियों के प्रति अनुकम्पा करना, उनके दुःखों को देख कर स्वयं दुःखानुभव करना दया है। दशविध श्रमणधर्म - क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस प्रकार का संवरनिर्जरा- कारणक दस प्रकार का उत्तमधर्म श्रमणधर्म है। दर्प- (I) बलकृत अहंकार का नाम दर्प है। (II) निष्प्रयोजन उछल-कूद कर युद्धादि करके या लड़-भिड़ कर स्वं-बल- प्रदर्शन करना दर्प है। दर्पिका - बिना किसी गाढ़ कारण के, अकुशल परिणाम से, प्रमादपूर्वक, अविरति आदि भाव से अपवादमार्ग का सेवन करना दर्प- प्रतिसेवना या दर्पिका है। दर्शन (सम्यग्दर्शन, श्रद्धा) – (I) देव, गुरु और धर्म के प्रति, अथवा आप्त, आगम और (नौ) पदार्थों के प्रति श्रद्धा, रुचि (व्यवहार) सम्यग्दर्शन है । ( II) इसी प्रकार * " तत्त्वभूत (नौ या सात ) पदार्थों के प्रति श्रद्धान, रुचि, प्रत्यय ( प्रतीति), श्रद्धा या दर्शन दृष्टि) सम्यग्दर्शन है। (III) दर्शनविशोधकशास्त्र या सूत्र भी दर्शन कहलाता है। (IV) दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से आविर्भूत तत्त्वार्थश्रद्धानरूप आत्म-परिणामदर्शन है। (V) वंस्तु का याथात्म्य श्रद्धान दर्शन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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