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________________ * पारिभाषिक शब्द कोष * ४६१ * न्द्रियजाति-नाम-जिस कर्म के उदय से जीवों के द्वीन्द्रियरूप से समानता होती है, उसे द्वीन्द्रिय जाति-नामकर्म कहते हैं। द्वीन्द्रिय जीव- जो जीव स्पर्शन - रसन- ज्ञानावरण के क्षयोपशम के स्पर्श और रस-विषयक ज्ञान से युक्त होते हैं, वे । द्वेष- (I) द्वेष वेदनीय कर्म के उदय से जो अप्रीतिरूप परिणाम उत्पन्न होता है, उसे द्वेष कहते हैं। (II) क्रोध, मान (अहंकार), अरति, शोक, जुगुप्सा, घृणा, अरुचि और भय आदि द्वेष के ही रूप हैं। देशविरत-हिंसादि से आंशिकरूप से विरत, आंशिकरूप से अनिवृत्त श्रावक । (ध) धर्म-(I) मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का शुद्ध परिणाम। (II) सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय धर्म है, अथवा धर्म श्रुत चारित्रात्मक है, जो जीव का आत्म-परिणाम है, कर्मक्षय का कारण है। (III) जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि ( प्राप्ति) हो, वह। (IV) वस्तु का स्वभाव धर्म है । (V) मिथ्यात्व - रागादिसंसरणरूप भावसंसार में गिरते हुए प्राणियों का वहाँ से उद्धार करके जो निर्विकार शुद्ध चैतन्य में धरता है–स्थापित करता है, वह। (VI) क्षमादि दशविध उत्तमधर्म हैं, जो नीचे गिरते हुए जीवों को उच्चपद र प्रतिष्ठित करते हैं। धर्मकथा-(I) सर्वज्ञोक्त अहिंसादि-स्वरूप धर्म का कथन करना। (II) जिससे जीवों का प्रभ्युदय और निःश्रेयस प्रयोजन सिद्ध हो, ऐसी सद्धर्मनिबद्ध कथा करना धर्मकथा है। III) स्वाध्याय तप का पाँचवाँ अंग धर्मकथा है। धर्मतीर्थ-धर्मरूप, रत्नत्रयादि धर्मप्रधान तीर्थ ( धर्मसंघ या चातुर्वर्ण्य धर्मसंघ ) । ऐसे धर्मप्रधान तीर्थ की स्थापना (प्रवर्तन) करने वाले महापुरुष को धर्मतीर्थंकर कहते हैं । धर्मदेव-ईर्यासमिति से युक्त होकर, यावत् ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने वाले अनगारों (साधुओं) को धर्मदेव कहा गया है। धर्मद्रव्य = धर्मास्तिकाय - जो ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस और ८ प्रकार के स्पर्श से रहित तथा जीवों और पुद्गलों के गमनागमन आदि में सहायक हो, लोकप्रमाण हो, असंख्यात प्रदेशों वाला हो, उसे धर्मास्तिकाय या धर्मद्रव्य कहते हैं। धर्मध्यान- (I) आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय (विवेक या विचारणा ) के द्वारा बार-बार स्मृति को उसी ओर लगाया जाना, मन को उसी में एकाग्र करना धर्मध्यान है। धर्मध्यान के लक्षण हैं - आर्जव ( सरलता), मृदुता, जाति आदि अष्टविध मद का अभाव, लघुता ( अभिमानशून्यता या अपरिग्रहवृत्ति) और कषायों की उपशान्ति । धर्मरुचि - (I) जो जिन-प्रज्ञप्त अस्तिकाय धर्म, श्रुत-चारित्रधर्म आदि पर श्रद्धान करता है, वह धर्मरुचि (सराग) सम्यग्दर्शनी है। (II) धर्मरुचि नामक एक अनगार हुए हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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