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*. ४४४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट *
है, तव उसे ग्रहण (चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण) कहा जाता है। यह तो द्रव्यग्रहण है। भावग्रहण वह है, जिसमें आत्मा या जीवरूपी चन्द्र या सूर्य को कर्मरूपी राहु या केतु ग्रस लेता है।
ग्राहकशुद्ध दान–(I) दान लेने वाला चारित्र गुणों से युक्त हो, वह दान ग्राहकंशुद्ध दान है। (II) जो सर्वसावद्ययोग से विरत, तीन प्रकार से गौरव से रहित, तीन गुप्तियों
और पंच समितियों से युक्त, राग-द्वेषरहित, नगर, वसति, शरीर और उपकरणादिविषयक ममता से रहित, अष्टादशसहन शीलांगरथ-धारण में कुशल, रत्नत्रयधारक, सुवर्ण और ढेले को समान समझने वाला, दो उत्तम ध्यानों का ध्याता, यथाशक्ति नाना तप में विरत, सत्रह प्रकार के संयम का धारक, अठारह प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालक, ऐसा साधु जिस दान का ग्राहक हो, वह ग्राहकशुद्ध दान है, उत्कृष्ट सुपात्रदान है।
ग्रैवेयक (देवलोक)-लोकरूप पुरुष के ग्रीवास्थान पर अवस्थित विमानों को ग्रैवेयक विमान और उनमें वास करने वाले देवों को ग्रैवेयक देव कहते हैं। __ ग्लान-(I) जिसका शरीर रोग आदि से अभिभूत हो, उस साधु या श्रावक को ग्लान कहते हैं। ग्लान की वैयावृत्य करना वैयावृत्य तप के १0 प्रकारों में से एक प्रकार है। (II) जो मन्द, अपटु या किसी व्याधि, पीड़ा से क्लिष्ट, पीड़ित या पराभूत है, वह भी ग्लान कहलाता है।
घातिकर्म-क्रमशः केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र तथा वीर्यरूप आत्म-गुणों के घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, ये चार घातिकर्म हैं। इनके अतिरिक्त चार कर्म-वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्रकर्म-अघाति हैं। घातिकर्मों के भी दो भेद हैं-सर्वघाती और देशघाती। केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, पाँच निद्राएँ, तीन कषायचतुष्क (अनन्तानुबन्धी से प्रत्याख्यानावरण तक) और मिथ्यात्व, ये २० प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं तथा २६ प्रकृतियाँ देशघातिनी हैं--ज्ञानावरणीयादि ४, दर्शनावरण की ३, संज्वलन-कषायचतुष्क, हास्यादि ९ नोकषाय और ५ अन्तरायकर्म तथा सम्यक्त्वमोहनीय।
घ्राणेन्द्रिय-जिसके द्वारा आत्मा वीर्यान्तराय और घ्राणेन्द्रिय मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से और अंगोपांग-नामकर्म की सहायता से वस्तुगत सुगन्ध या दुर्गन्ध को ग्रहण करती है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं।
घ्राणेन्द्रियनिरोध (निग्रह)-जीव या अजीव के प्राकृतिक या प्रयोगरूप सुगन्ध में राग न करने तथा दुर्गन्ध में द्वेष न करने को घ्राणेन्द्रियनिरोध या घ्राणेन्द्रियनिग्रह कहते हैं। यह इन्द्रियसंवर का एक प्रकार भी है।
घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह-घ्राणेन्द्रिय का विषय है-नाना प्रकार की सुगन्ध और दुर्गन्ध। सुगन्ध-दुर्गन्धरूप पुद्गलों के अतिमुक्तक पुष्प के आकारस्वरूप घ्राणेन्द्रिय के भीतर प्रविष्ट होने पर जो सुगन्ध-दुर्गन्धविषयक प्रथम ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह कहते हैं। यह मतिज्ञान का एक भेद है। इस प्रकार के ज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म को घ्राणेन्द्रिय-व्यंजनावग्रहावरणीय कर्म कहते हैं।
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