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________________ * पारिभाषिक शब्द - कोष * ४४३ * गुरु- नामकर्म - जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में भारीपन हुआ करता है, वह गुरु-नामकर्म है। भाषण - (1) दो के बीच में प्रीति - सम्बन्ध को नष्ट करने के लिए एक दूसरे की चुगली करना। (II) अपनी धर्मपत्नी की गुप्त (रहस्यगत) बात को प्रकट करना । यह ‘गुह्यभाषण' अथवा ‘स्वदारमंत्रभेद' है; जो सत्य- अणुव्रत का एक अतिचार है । गृद्ध-पृष्ठ- मरण - मृत शरीर में प्रविष्ट हो कर गिद्धों के द्वारा अपना भक्षण कराने से जो मरण होता है, उसे गृद्ध-पृष्ठ- मरण कहते हैं। गृहमेधी–गृहस्थश्रावक-जो सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न हो कर ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रतों को धारण करते हुए आंशिक रूप से पाप से विरत होते हैं, उन्हें गृहमेधी या गृहस्थश्रावक कहते हैं । गृहिधर्मयोग्य गृही-‍ - त्याग-सम्पन्न वैभव वाला इत्यादि ३५ मार्गानुसारी के गुणों से युक्त गृहस्थ गृहिधर्मयोग्य गृही कहलाता है । गृहिलिंग-सिद्ध-गृहस्थ वेश में स्थित होते हुए जिन्होंने सिद्ध (अष्टविध कर्ममुक्त) पद प्राप्त किया है, करते हैं, वे गृहिलिंग-सिद्ध कहलाते हैं। गृहीत- मिथ्यादर्शन-दूसरे के उपदेश से तत्त्वार्थ के प्रति अश्रद्धान होना । गोचर, गोचरी-(I) जैसे गाय घास डालने वाली ललना के अंगगत सौन्दर्य आदि को न देख कर केवल घास का ही भक्षण करती है, अथवा विभिन्न देशों में जो भी, जैसा भी तृणसमूह उपलब्ध होता है, उसका उपभोग कर लेती है, उसकी संयोजना-विशेष को नहीं देखती, उसी प्रकार साधु भी आहारदात्री महिला के अंगोपांग, सौन्दर्य, वेशभूषा आदि पर दृष्टि न रख कर जैसा भी, जो भी आहार प्राप्त होता है, उसे ग्रहण करते हैं। इसलिए गौ के समान वृत्ति होने से इसे गोचर या गोचरी वृत्ति कहते हैं। इसे 'भिक्षाचरी' नामक बात भी कहा गया है। गोत्र - गोत्रकर्म - (I) जिस कर्म के उदय से जीव उच्च, नीच कहा जाता है, वह गोत्रकर्म है। (II) मिथ्यात्व आदि कारणों से जीव के साथ सम्बन्ध को प्राप्त जो . कर्मपुद्गल-स्कन्ध उच्च या नीच (लोकगर्हित) कुल में उत्पन्न कराता है, उसे गोत्र कहते हैं। इस कर्म के दो भेद हैं-उच्चगोत्र और नीचगोत्र | (III) सन्तानक्रम से आये हुए आचरण ( संस्काररूप आचार) को भी गोत्र कहते हैं | (IV) तथाविध एक पूर्वजपुरुष से प्रचलित वंश भी गोत्र कहलाता है। ग्रन्थि - जिस प्रकार किसी वृक्ष - विशेष की कठोर गाँठ अतिदुर्भेद्य होती है, उसी प्रकार कर्मोदय से उत्पन्न जो जीव के घनीभूत राग-द्वेष परिणाम उस गाँठ के समान दुर्भेद्य होते हैं, उन्हें ग्रन्थि कहते हैं। ग्रहण- (I) शास्त्र के अर्थ का उपादान = सम्यक्रूप से ग्रहण ( आत्मसात् करना ग्रहण है। यह बुद्धि के आठ गुणों में से एक है। (II) चन्द्र या सूर्य की आड़ में जब पृथ्वी आ जाती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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