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________________ * ४४२ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * ___गुण-(I) द्रव्य के आश्रित रहने वाले तथा अन्य गुणों से रहित हों, वे गुण कहलाते हैं। (II) जो द्रव्य के साथ रहता है, वह गुण है। (III) जैसे-जीव (आत्मा) के सहभादी गुण हैं-ज्ञानादि तथा पुद्गल के सहभावी गुण हैं-रूप, रस आदि। (IV) शील, सदाचार आदि विशेषताओं को भी गुण कहते हैं। गुणव्रत-अणुव्रतों के उपकारक तथा उनमें विशेषता पैदा करने वाले होने से ये (श्रावक के तीन) गुणव्रत कहलाते हैं। यथा-दिशापरिमाणव्रत, उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रत और अनर्थदण्ड-विरमणव्रत। गुणगुरु-जो तप, व्रत, संयमादि गुणों में महान् हैं, हमसे आगे बढ़े हुए हैं, वे गुणगुरु कहलाते हैं। ___ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान-सम्यक्त्व से अधिष्ठित अणुव्रत-महाव्रतादि गुण जिस अवधिज्ञान के उत्पन्न होने के कारण हैं, उसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं। देवों और नारकों को जन्म से ही अवधिज्ञान होता है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। . गुणवत्प्रतिपत्ति-ज्ञानादि गुणों अथवा मूलगुण-उत्तरगुणों से युक्त गुणवान् को वन्दना-नमस्कारादिरूप आदर-सत्कार करना गुणवत्प्रतिपत्ति है। यह तीसरे आवश्यक का पर्यायवाची शब्द है। गुणश्रेणि-परिणामों की विशुद्धि की वृद्धि से अपवर्तनाकरण के द्वारा उपरितन स्थिति से न्यून करके अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रतिसमय उत्तरोत्तर असंख्यातगुणित वृद्धि के क्रम से कर्मप्रदेशों की निर्जरा के लिए जो रचना होती है, उसे गुणश्रेणि कहते हैं। गुणसंक्रम-(I) अप्रमत्त गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में बन्ध से रहित प्रकृतियों का गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम होता है। (II) विशुद्धि के वश प्रतिसमय असंख्यातगुणित | वृद्धि के क्रम से अबध्यमान अशुभ प्रकृतियों के द्रव्य को जो शुभ प्रकृतियों में संक्रमा (प्रवेश) किया जाता है, इसका नाम गुणसंक्रम है। गुणस्थान-गुण हैं-ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप, जोकि जीव के स्वभाव-विशेष हैं, उन गुण की शुद्धि-अशुद्धि, प्रकर्ष-अपकर्षकृत स्वरूपभेद, जिसमें गुण रहें, वह गुणों का स्थान गुणस्थान है। वे १४ हैं, जिनमें उत्तरोत्तर मोह उपशान्त, क्षीण, क्षयोपशान्त होते हैं। गुणाधिक-सम्यग्ज्ञानादि गुणों में जो अपने से अधिक हैं, उन्हें गुणाधिक कहते हैं। गुप्ति-(I) सम्यग्दर्शनपूर्वक त्रिविध योगों (मन-वचन-काय की प्रवृत्तियों) का निग्रह करना। (II) संसार के मिथ्यात्वादि कारणों से आत्मा का गोपन (रक्षण) करना गुप्ति है। (III) जिनसे सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र का गोपन-रक्षण किया जाये, वे गुप्तियाँ हैं। ये तीन हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति। गुरु-(I) जो शास्त्रों के अर्थ को ग्रहण कराता है, उपदेशादि-देता है; वह गुरु है। (II) जो दीक्षा देता है, अध्यापन कराता है, आचार्यादि से वाचना लिया हुआ (गीतार्थ) है, निर्दोष हो कर आभ्यन्तर प्रयोजन को सिद्ध करता है, वह गुरु है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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