SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४४५ * घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह-उत्कृष्ट क्षयोपशम को प्राप्त घ्राणेन्द्रिय से अमुक प्रमाण मात्र क्षेत्र का अन्तर करके स्थित द्रव्य के गन्ध का जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह कहते हैं। उक्त प्रकार के ज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म को घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रहावरणीय कर्म कहते हैं। घ्राणेन्द्रिय-ईहाज्ञान-घ्राणेन्द्रिय द्वारा गन्ध का अवग्रह करके यह गन्ध गुणरूप है या अगुणरूप? दुष्ट स्वभाव वाला है या अदुष्ट स्वभाव वाला ? या जात्यन्तर स्वभाव को प्राप्त है ? इन ५ विकल्पों में से किसी एक विकल्प के हेतु को ले कर यह गुण-अगुणादिरूप होना चाहिए, इस प्रकार का अन्त में जो ज्ञान होता है, उसे घ्राणेन्द्रिय-ईहाज्ञान कहते हैं। घ्राणेन्द्रियजनित-ईहाज्ञान को जो आच्छादित करता है वह घ्राणेन्द्रियेहावरणीय कर्म है। घ्राणेन्द्रियावायज्ञान-घ्राणेन्द्रियेहाज्ञान से अवगत लिंग के बल से एक विकल्प में उत्पन्न हुए निश्चय का नाम घ्राणेन्द्रिय-अवाय है। घ्राणेन्द्रियावायज्ञान के आवारक कर्म को घ्राणेन्द्रियावायावरणीय कर्म कहते हैं। चक्रवर्ती-षट्खण्ड भरतक्षेत्र के अधिपति और ३२ हजार मुकुटबद्ध राजाओं आदि के स्वामी चक्रवर्ती होते हैं। चक्रवर्ती यदि संयम लें तो देवलोक में या मोक्ष में जाते हैं और सांसारिक विषयभोगों में फँस जायें तो नरक में जाते हैं। चक्षुरिन्द्रिय-वीर्यान्तरांय और चक्षुरिन्द्रिय मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग-नामकर्म के आलम्बन से आत्मा जिसके द्वारा पदार्थों को देखता है, वह चक्षुरिन्द्रिय है। ___चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह-चक्षुरिन्द्रिय से इतने (यथासम्भव ४७२६३७/10 आदि) योजन के अन्तर से स्थित द्रव्य के विषय में जो ज्ञान (अवग्रह) उत्पन्न होता है, उसे चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह कहते हैं। चक्षुरिन्द्रिय-ईहाज्ञान-चक्षुरिन्द्रिय अवग्रह द्वारा जाने गये पदार्थ के विषय में जो विशेष आकांक्षा--विशेष ज्ञान का कारणभूत विचार होता है, उसका नाम चक्षुरिन्द्रिय-ईहाज्ञान है। .. चक्षुरिन्द्रियावायज्ञान-चक्षुरिन्द्रिय-ईहाज्ञान से जाने गये लिंग के आश्रय से जो एक-विकल्प-विषयक निश्चय उत्पन्न होता है, उसे चक्षुरिन्द्रिय-अवायज्ञान कहते हैं। चक्षुःदर्शन-(I) चाक्षुषज्ञान के पूर्व में ही जो चाक्षुषज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त अपनी सामान्य स्व-संवेदनरूप शक्ति का अनुभव होना। (II) चक्षुरिन्द्रियावरण के क्षयोपशम और द्रव्येन्द्रिय के अनुपघात में जो तत्परिणामवाद-चक्षुदर्शनगुण-परिणामयुक्त-आत्मा को सामान्य का ग्रहण होना चक्षुदर्शन है। चक्षुःदर्शनावरण-चक्षुरिन्द्रिय से होने वाले सामान्य उपयोग को जो आवृत करता है, वह चक्षुःदर्शनावरण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy