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________________ * ४२८ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * परहितार्थ, परोपकारार्थ, पुण्यार्थ, पर-सुखार्थ, पर-प्रसन्नार्थ किया गया कर्म निष्काम है। गीता के शब्दों में फलभोग की आकांक्षा से युक्त कर्म सकाम है। उससे निरपेक्ष कर्म निष्काम है। तथैव अहंकार-ममकार से एवं फल-प्राप्ति, फलाशंका, फलाकांक्षा, फलभोगाकांक्षा, आदि दोषों से रहित कर्म निष्काम है। इनसे युक्त कर्म सकाम हैं। कर्म, विकर्म, अकर्म-राग-द्वेष, कषाय, प्रमाद आदि से प्रेरित हो कर की जाने वाली साम्परायिक क्रिया कर्म है, जबकि कषाय, प्रमाद, राग-द्वेष, मोह आदि से रहित होकर मात्र ज्ञाता-द्रष्टाभाव से ईर्यापथिक क्रिया की जाए तो प्रदेशबन्ध-प्रकृतिबन्ध नाममात्र का होने से अथवा आठों की कर्मों से रहित सिद्धों के द्वारा स्वभावरमण होने से उनके कर्म को अबन्धककर्म अथवा अकर्म कहते हैं। अथवा कर्म के दो विभाग हैं-विकर्म कर्म में से ही प्रादुर्भूत होता है। अतः कर्म और विकर्म क्रमशः शुभ और अशुभ हैं, यानी शुभयोगरूप पुण्यानव को कर्म और अशुभयोगरूप पापास्रव को विकर्म कहा जा सकता है। निष्क्रिय होने मात्र से कर्म अकर्म नहीं हो जाता। शुभ-अशुभ-शुद्धकर्म-पूर्वोक्त लक्षणानुसार कर्म को शुभ कर्म, विकर्म को अशुभ कर्म और कर्म करते हुए भी निर्लिप्त ज्ञाता-द्रष्टा रहने वाले अकर्म को शुद्ध कर्म कहते हैं। कार्य मांगलिक होते हुए भी हिंसादियुक्त हो तो अशुभ है, परोपकार भी निष्काम एवं निःस्वार्थ होने से शुभ है, अन्यथा अशुभ। इसलिए शुभ-अशुभ की एक कसौटी यह भी है-जो आत्मानुकूल हो, वह शुभ और आत्म-प्रतिकूल हो, वह अशुभ और अनिष्ट है। ___ कर्म, नोकर्म-कर्म बनने योग्य पुद्गल-परमाणु को कार्मण-वर्गणा कहते हैं। ये ही कार्मण-वर्गणा के पुद्गल-परमाणु लोह चुम्बकवत् आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं, आत्मिक स्वतंत्रता को रोक देते हैं। इसलिए औदारिक आदि पाँच प्रकार के शरीरों में से कार्मणशरीर को उपचार से कर्म कहा जाता है, शेष चार प्रकार के शरीर नोकर्म रूप हैं। नोकर्म कर्म के फल-प्रदान में या कर्म के उदय में सहायक हैं। कर्म की तरह नोकर्म आत्म-गुणघातक या बन्धनकारक नहीं हैं। पूर्वोक्त शरीरों से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव सभी पर-पदार्थों को नोकर्म कहा गया है। तात्पर्य यह है कि संसारी जीवों के कर्मों के उदय से उनके अंगादि की वृद्धि-हानि के रूप में जो पुद्गल-परमाणुओं का समूह परिणत (निर्मित) होता है, वह नोकर्म कहलाता है। अतः नोकर्म कर्मविपाक में सहायक सामग्री है। नोकर्म क अवलम्बन हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव। अष्टविध कर्म : कर्म की मूलप्रकृतियाँ-आत्मा के मूल स्वभाव की आवारक, सुषुप्तिकारक, मूर्छाकारक या विकारक एवं शक्ति-प्रतिरोधक कर्मप्रकृतियाँ। कर्मों के पृथक्-पृथक् स्वभाव पर से उनका पृथक्करण करना प्रकृतिबन्ध है। मूल में ८ कर्म शुद्ध आत्मा के ८ गुणों को आवृत, कुण्ठित आदि करते हैं। वे इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तरायकर्म। ___ महाकर्म-अल्पकर्म-जो जीव कर्मों की दीर्घकालिक स्थिति वाले हों, कायिकी आदि प्रबल महाक्रियाओं वाले हों, कर्मबन्ध या कर्मानब के हेतुभूत मिथ्यात्व आदि भी प्रचुर एवं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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